उसे मंज़िल तक पहुँचा दे... (Part 5)

दो-चार दिन बाद
बिना पंडी जी से पूछे हुए 
एक दिन तय की जाती है
और फिर से वही कहानी दोहराई जाती है।
लेकिन  इस बार बस मिल जाती है —
बहुत पुरानी, यात्रियों से खचाखच भरी हुई।

थोड़ी ही दूर चलने के बाद बस खड़खड़ाने लगती है,
और फिर अचानक रुक जाती है।
सब लोग बेचैन, कोई पूछ रहा है — “क्या हुआ?”
ड्राइवर नीचे उतरकर इंजन देखने लगता है।

इंतज़ार लंबा होता जाता है,
पर बस ठीक नहीं हो पाती।
धीरे-धीरे यात्री एक-एक कर बस छोड़ने लगते हैं।
थककर औरत भी अपने तीन बच्चों के साथ उतर जाती है।

आज साथ में देवर भी है —
कुछ सामान उसके पास है,
कुछ बच्चों के हाथ में।
और औरत अपनी गोद में सबसे छोटे बच्चे को थामे
धीरे-धीरे कीचड़ भरे रास्ते पर आगे बढ़ती है।

आँखों में उम्मीद की लौ अब भी जल रही है —
शायद आगे कहीं और कोई बस मिल जाए,
जो उसे मंज़िल तक पहुँचा दे।
रूपेश रंजन...

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