ज़िम्मेदारियों का बोझ नहीं, आशीर्वाद है ये
ज़िम्मेदारियों का बोझ नहीं, आशीर्वाद है ये
✍️ रूपेश रंजन
ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की खुशी,
कहीं ज़्यादा है —
खुद के प्रेम को पा लेने से।
अब समझ आया,
बड़ा होना उम्र से नहीं होता,
बल्कि त्याग और कर्तव्य से होता है।
कभी जो ख्वाब थे अपने लिए,
अब वो दूसरों के लिए पूरे करता हूँ।
कभी जो चाहा था —
कि कोई मेरा हाथ थामे,
अब मैं दूसरों का सहारा बन गया हूँ।
कभी सोचा था,
प्रेम ही जीवन का सार है,
अब समझ आया,
प्रेम से ऊपर ज़िम्मेदारी है।
अब जब सूरज उगता है,
तो उसकी रोशनी में
मेरी इच्छाएँ नहीं चमकतीं,
बल्कि माँ-बाप के चेहरे की मुस्कान
सबसे बड़ा इनाम बन जाती है।
अब रातें जागकर
किसी के संदेश का इंतज़ार नहीं करतीं,
बल्कि कल के काम की चिंता में
नींद अपने आप भाग जाती है।
पहले लगता था,
खुद के लिए जीना ही आज़ादी है,
अब लगता है —
दूसरों के लिए जीना ही ईश्वर की आराधना है।
कभी-कभी मन कहता है,
“थोड़ा अपने लिए भी जी लो…”
पर उसी पल,
किसी की ज़रूरत की आवाज़ आती है,
और मैं मुस्कुराकर कह देता हूँ —
“पहले ये कर लूँ, फिर सोचूँगा अपने बारे में…”
बड़ा हो गया हूँ,
अब आँसू नहीं दिखाता,
बस भीतर रख लेता हूँ,
क्योंकि जानता हूँ —
मेरे रोने से कोई हल नहीं निकलेगा,
लेकिन मेरे मुस्कुराने से
किसी का हौसला बढ़ सकता है।
अब दिल में खुद के प्रेम की जगह नहीं बची,
पर अफ़सोस भी नहीं होता।
क्योंकि हर बार जब कोई “धन्यवाद” कहता है,
तो लगता है —
कहीं न कहीं,
जीवन ने मुझे उसी प्रेम से नवाज़ दिया है,
जिसे मैं खोज नहीं पाया।
ज़िम्मेदारियों का बोझ नहीं ये,
आशीर्वाद है —
जो हर सुबह मुझे जगाता है,
हर शाम सुकून देता है।
और शायद यही जीवन की सबसे बड़ी कविता है —
कि जो अपने लिए नहीं जी पाते,
वो दूसरों में ईश्वर को पा लेते हैं।
— रूपेश रंजन
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