"याद करूँगा तो मर जाऊँगा"

"याद करूँगा तो मर जाऊँगा"

✍️ रुपेश रंजन

मैं याद नहीं करता,
क्योंकि यादें जलाती हैं।
वो वक्त की राख में दबी चिंगारियाँ हैं,
जो छूते ही सब कुछ राख कर देती हैं।

मैं याद नहीं करता,
क्योंकि याद करूँगा तो मर जाऊँगा।

भूलना सीख लिया है मैंने,
जैसे कोई अपनी परछाई से मुँह मोड़ लेता है।
हर सुबह खुद को समझाता हूँ,
कि नया दिन है, नई ज़िन्दगी है।

फिर भी, कहीं भीतर
वो पुराना शहर अब भी सांस लेता है।
वो गलियाँ, वो चाय की दुकान,
वो पेड़ जिसके नीचे घंटों बैठा करता था,
सब अब भी वहीं हैं —
बस मैं नहीं हूँ वहाँ।

मैं सोचता हूँ,
कभी किसी शहर को छोड़ देना
कितना आसान लगता है बाहर से,
पर भीतर,
वो शहर तुम्हारे भीतर ही घर बना लेता है।

कभी वो शहर तुम्हारा हो जाता है,
तुम्हें अपनापन देता है,
और फिर एक दिन
तुम्हें कहता है — अब जाओ।

तुम अपना सामान समेटते हो,
कुछ कपड़े, कुछ किताबें,
और बहुत सारी यादें,
जिन्हें पैक करना नामुमकिन होता है।

ट्रेन छूटती है,
शहर पीछे छूट जाता है,
पर भीतर कुछ टूट जाता है।

नए शहर में आते ही
सब कुछ फिर से शुरू करना पड़ता है।
नया कमरा, नई सड़कें,
नए चेहरे, नई आदतें।

पहले-पहल अजीब लगता है,
फिर धीरे-धीरे वही अजनबी गलियाँ
अपनेपन की खुशबू देने लगती हैं।

जीवन यही है शायद —
हर बार टूटकर जुड़ना,
हर बार मिटकर बनना।

और इस बीच,
हर जगह थोड़ा-थोड़ा मैं रह जाता हूँ,
और थोड़ा-थोड़ा शहर मुझमें रह जाता है।

कभी अचानक बारिश में
पुराने शहर की खुशबू आ जाती है,
दिल एक पल को रुक जाता है,
पर मैं फिर मुस्कुरा देता हूँ —
क्योंकि याद करूँगा तो मर जाऊँगा।

अब मैं सोचता नहीं,
बस आगे बढ़ जाता हूँ।
जो गया, वो गया।
जो है, उसे जीना है।

अब मैं शहरों से ज़्यादा
लोगों से ज़्यादा,
खुद से जुड़ने की कोशिश करता हूँ।

कभी आईने में देखता हूँ,
तो लगता है —
कितने शहरों का आदमी हूँ मैं।
हर शहर ने मुझे थोड़ा-थोड़ा बनाया,
थोड़ा-थोड़ा तोड़ा भी।

पर अब दर्द नहीं होता,
क्योंकि दर्द से दोस्ती हो गई है।
वो अब डराता नहीं,
बस याद दिलाता है —
कि मैं ज़िंदा हूँ।

हर बार जब पीछे मुड़कर देखता हूँ,
वो रास्ते, वो चेहरे,
एक धुँधले पर्दे के पीछे दिखते हैं।
मैं हाथ बढ़ाता हूँ,
पर छू नहीं पाता।

और तब समझ आता है —
ज़िन्दगी यादों से नहीं,
भूल जाने से चलती है।

हर अलविदा के बाद
एक नई शुरुआत छिपी होती है,
हर अंत के बाद
एक नयी कहानी जन्म लेती है।

मैं अब याद नहीं करता,
क्योंकि यादें बहुत शोर करती हैं।
मुझे अब सुकून चाहिए,
और सुकून, भूलने में है।

कभी-कभी दिल कहता है —
"चलो, एक बार और देख लेते हैं पीछे..."
पर फिर वही आवाज़ आती है —
"नहीं, याद करूँगा तो मर जाऊँगा।"

अब मैं शहर नहीं बदलता,
बस अपने भीतर की गलियाँ बदल लेता हूँ।
हर सुबह नया नक्शा बनाता हूँ,
जहाँ पुराने नाम मिटा देता हूँ।

कभी कोई नाम रह भी जाता है,
तो बस कविता बन जाता है,
दर्द नहीं।

अब मैं उस पुराने शहर को
अपने भीतर मंदिर की तरह रखता हूँ —
जहाँ रोज़ पूजा नहीं करता,
बस कभी-कभी चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ।

क्योंकि जानता हूँ,
अगर झुक गया, अगर याद कर लिया —
तो मर जाऊँगा मैं।

मैं याद नहीं करता,
अब सिर्फ जीता हूँ।
नया शहर, नई गलियाँ,
नई हवा, नया मैं।

पर कहीं भीतर
वो पुराना मैं अब भी ज़िंदा है,
जो हर बार कहता है —
“याद करूँगा तो मर जाऊँगा मैं।”

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