यह ब्रह्मांड...
यह ब्रह्मांड,
न तो पूर्ण रूप से बिखरा हुआ है,
न ही पूरी तरह सजा-संवरा।
यह चल रहा है —
एक प्रक्रिया में,
एक प्रवाह में,
जहाँ संयोग और व्यवस्था
दोनों साथ नाचते हैं।
कुछ पत्ते हवा में उड़ते हैं,
कुछ जड़ों में जमे रहते हैं।
कुछ तारे दिशा बताते हैं,
कुछ बस टिमटिमाते हैं।
यह सृष्टि किसी एक नियम की दासी नहीं,
पर अराजकता की भी रानी नहीं।
यह बीच का संगीत है —
जिसमें ताल भी है,
और विराम भी।
हर अंश में एक अर्थ है,
पर हर अर्थ अधूरा है।
क्योंकि ब्रह्मांड
कभी समाप्त नहीं होता,
वह बस विकसित होता है —
एक प्रक्रिया में,
अनवरत, अनगिनत, अनदेखा।
रूपेश रंजन
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