मैं आवाज़ उठाऊँगा...
तुम क्या चाहते हो?
मैं हथियार न उठाऊँ?
रोते ज़माने को देखकर मैं भी रो लूँ?
और खुश हो जाऊँ
यह सोचकर कि मैं ग़मज़दा लोगों के साथ ग़मगीन हूँ?
मैं बस रो नहीं सकता,
रोते-रोते मर नहीं सकता।
मैं आवाज़ उठाऊँगा,
मेरी ज़ुबान बहेगी —
आँखें नहीं।
मेरा लहू गिरेगा —
आँसू नहीं।
मौत-ए-नुसरत तो लाज़िमी है,
वजह के मुताबिक़ हो तो कोई बात हो।
किसी मज़लूम के लिए लड़ते हुए हो तो कोई बात हो,
किसी मजबूरी में मरने से तो अच्छा है —
इरादे से जीना, वजह से मरना।
मुझसे ज़्यादा उम्मीद मत रखो,
मेरे हुक्मरानों,
मैं चीखूँगा दर्द होने पर,
सिसक-सिसक कर रोऊँगा नहीं।
ओ मेरे ख़ुदा,
तेरे फ़ज़ल से हूँ मैं यहाँ,
तू भी मत यह सोच
कि किसी ग़रीब की लाचारी देखकर तुझे नहीं कोसूँगा।
मैं रोऊँगा नहीं,
लड़ूँगा।
मेरा ख़ून बहेगा —
खारा पानी नहीं...
रूपेश रंजन
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