याद करूँगा तो मर जाऊँगा।

मैं याद नहीं करता,
याद करूँगा तो मर जाऊँगा।

भूलना आ गया है मुझे,
याद करूँगा तो मर जाऊँगा।

सोचता ही नहीं अब, आगे बढ़ जाता हूँ,
याद करूँगा तो मर जाऊँगा मैं।

एक शहर
अपना बन जाता है
कुछ साल रहने के बाद,
बिलकुल घर जैसा।

फिर एक दिन
हमें छोड़ना पड़ता है,
एक नए शहर के लिए।

हम चले आते हैं नए शहर,
अपने सामान के साथ,
और फिर जीने लगते हैं सामान्य ज़िन्दगी,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो,
कुछ बदला ही नहीं हो,
जैसे हम इस नए शहर में ही सालों से हों,
कभी दूसरे शहर में रहे ही न हों।

ऐसा करना पड़ता है,
क्योंकि याद करूँगा तो मर जाऊँगा मैं।

— ✍️ रुपेश रंजन


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