माँ मेरी छत पे जाती थी...

हम किराए पे रहते थे
एक मकान में।
माँ मेरी छत पे जाती थी,
गर्मी में भी,
ठंडी में भी।

छत पे कमरा बन गया,
कमरा किराये पर लग गया।
मेरी माँ अब भी जाती थी,
लेकिन संकोच के साथ।

धीरे-धीरे संकोच बढ़ गया,
मेरी माँ कम जाने लगी।

फिर मैंने एक नया मकान बनवाया,
जिसकी छत खाली थी,
ख़ास थी,
सिर्फ़ हमारी थी।

लेकिन मेरी माँ अब छत पर नहीं जाती।
कहती है — “ऊपर नहीं जा पाती हूँ।”

बीमारी शायद ज़्यादा बढ़ गई है।
बीमार तो पहले भी थी,
पर शायद किसी चीज़ की चाहत
तभी तक होती है जब तक वो मिल न जाए।
अब जब मिल गई है,
तो ज़रूरत नहीं रह गई।

मुझे बुरा लगता है,
दिल भारी हो जाता है,
पर मैं कुछ कर नहीं पाता हूँ।
माँ को बदल नहीं पाता हूँ...

— ✍️ रुपेश रंजन

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