जब शोर-ए-पत्थर भी दिल को सुकून ना दे सके

 जब शोर-ए-पत्थर भी दिल को सुकून ना दे सके

ग़लती पत्थरों की नहीं, नशा-ए-मोहब्बत ज़हर है

इंसान अब बेअसर है...


जब शोर पत्थरों का दिल के कानों से टकराता है,

पर राहत का कोई परिंदा उड़कर पास नहीं आता है।

यह दर्द, यह खामोशी, यह हालात क्यों बने हैं,

शायद मोहब्बत के ज़हर से दिल अब जले हैं।


पानी में पत्थर गिरा, लहरें पैदा हुईं कई,

मगर इस दिल के तालाब में शांति की हवा न आई।

शिकवा पत्थरों से नहीं, उनकी बात ही अलग है,

मगर इंसानी जज्बातों में गहरी साज़िश दफन है।


इश्क का जो नशा था, कभी था सुकून का नाम,

आज वही नशा बन गया है जहर का सामान।

जहाँ गुल खिलते थे मोहब्बत के बागों में,

अब वहाँ खड़े हैं सिर्फ कांटे, वीरान राहों में।


शाम को जब चाँद तारे चुपचाप देखते हैं,

इन पत्थरों के पीछे छिपे दर्द के किस्से सुनते हैं।

वो चुप हैं, क्योंकि जानते हैं, इंसान अब कैसा है,

जिसने खुद से मोहब्बत की दुनिया को तरासा है।


दिलों की बस्ती में अब कोई मकान खाली नहीं,

हर कोना जहर भरा, कोई सवाली नहीं।

कभी हंसी थी, कभी ख़्वाब थे, कभी जुनून था,

अब हर चेहरे पर उदासी का ही समरून था।


ग़लती पत्थरों की नहीं, वो तो बस ठहरे हैं,

ग़लती तो उन जज्बातों की है, जो अब बिखरे हैं।

जो मोहब्बत कभी राहत थी, सुकून का नाम,

आज वही मोहब्बत बन गई है एक दर्द का काम।


इंसान बेअसर है, जज़्बातों की परछाईं भी नहीं,

आँखों में अश्क तो हैं, पर रूह में गहराई भी नहीं।

पत्थरों का शोर सुनकर दिल क्यों सिसकता है,

क्यों मोहब्बत का जहर हर जगह चहकता है?


कभी ज़हर था मय का, अब मोहब्बत का नाम है,

इंसान की नफरत से हर रिश्ता बेजान है।

दिलों में अब न जगह है, न भरोसे का आसरा,

हर कोई यहाँ सिर्फ अपने नशे का प्यासा।


जब शोर-ए-पत्थर भी दिल को सुकून ना दे सके,

तो समझो दिल के अंदर खाई गहरी है कहीं।

मोहब्बत के नशे में जो दुनिया जहर बना गई,

उस इंसान की हर साजिश हमें आज़मा गई।


पर पत्थरों को दोष क्यों? वो तो बेजुबान हैं,

उनका काम है चुपचाप सब सहते रहना।

ग़लती हमारी मोहब्बत की है, उसकी परिभाषा,

जिसे हमने बना लिया, खुद के दर्द का तमाशा।


अब वक्त है कि दिल को पत्थर से सीख लें,

खुद से मोहब्बत करें और मोहब्बत में रीति लिख लें।

शायद तब पत्थरों का शोर दिल को भा जाएगा,

और इंसान फिर इंसानियत से जुड़ पाएगा।


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