मदन मोहन मालवीय: एक महान शिक्षाविद् और राष्ट्रभक्त

मदन मोहन मालवीय: एक महान शिक्षाविद् और राष्ट्रभक्त


मदन मोहन मालवीय (1861-1946) भारत के महान शिक्षाविद्, स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक थे। वे अपने समय के बहुआयामी व्यक्तित्व थे, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और शिक्षा के क्षेत्र में अपने अतुलनीय योगदान के लिए जाने जाते हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना उनके जीवन का सबसे बड़ा कार्य था, जो आज एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक है। उनका जीवन सेवा, परिश्रम और समर्पण का प्रतीक था।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा


मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर 1861 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ संस्कृत के विद्वान और कवि थे, और उनकी माता मूनादेवी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। इस धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश में उनका पालन-पोषण हुआ, जिसने उनके जीवन में अनुशासन और सेवा के आदर्शों को गहराई से समाहित किया।


मालवीय ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद में प्राप्त की और मुइर सेंट्रल कॉलेज से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी उत्कृष्ट शैक्षणिक उपलब्धियों ने उन्हें छात्रवृत्ति दिलाई, जिससे वे आगे की पढ़ाई कर सके। उन्होंने कानून में डिग्री हासिल की, लेकिन उनका झुकाव सार्वजनिक सेवा की ओर था, और उन्होंने वकालत के बजाय राष्ट्र सेवा का मार्ग चुना।


सार्वजनिक जीवन की शुरुआत


मालवीय ने 1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के दूसरे अधिवेशन में भाग लेकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। उनके द्वारा दिया गया भाषण इतना प्रभावशाली था कि उन्होंने तुरंत राष्ट्रीय मंच पर अपनी पहचान बना ली। उनकी स्पष्टता, देशभक्ति और नेतृत्व क्षमता ने उन्हें कांग्रेस में एक प्रमुख नेता बना दिया।


स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद, मालवीय ने हमेशा संवैधानिक और शांतिपूर्ण उपायों का समर्थन किया। उन्होंने स्वराज (स्व-शासन) की मांग करते हुए अंग्रेजों से बातचीत और संवाद पर जोर दिया। महात्मा गांधी की तरह वे भी अहिंसा के प्रबल समर्थक थे।


स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका


मदन मोहन मालवीय स्वदेशी और स्वराज के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध किया और भारतीयों को जाति, धर्म और संस्कृति के बंधनों से ऊपर उठकर एकजुट होने का आह्वान किया।


उन्होंने चार बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद को संभाला (1909, 1918, 1932 और 1933) और पार्टी को सशक्त नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया, जिसे वे स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आवश्यक मानते थे। वे 1920 में शुरू किए गए असहयोग आंदोलन के समर्थन में भी सक्रिय रहे।


बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना


मालवीय का सबसे बड़ा योगदान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना थी, जिसकी नींव 1916 में रखी गई। उन्होंने एक ऐसा विश्वविद्यालय बनाने का सपना देखा था, जो पारंपरिक भारतीय ज्ञान और आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा का समावेश करे।


बीएचयू ने संस्कृत, दर्शन, धर्मशास्त्र के साथ-साथ विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा जैसे आधुनिक विषयों में शिक्षा प्रदान की। विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए उन्होंने देशभर से धन इकट्ठा किया। उनकी इस पहल ने भारत की शैक्षिक प्रणाली में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया और शिक्षा को आम जनता के लिए सुलभ बनाया। आज बीएचयू उनके दूरदर्शी नेतृत्व का प्रतीक है।


सामाजिक और धार्मिक सुधार


मालवीय समाज में व्याप्त छुआछूत, जातिगत भेदभाव और महिलाओं की दयनीय स्थिति को लेकर बेहद चिंतित थे। उन्होंने हाशिए पर पड़े वर्गों के उत्थान के लिए काम किया और शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण को इसका समाधान माना।


महिलाओं की शिक्षा के प्रति भी उनका विशेष झुकाव था। वे धर्मनिष्ठ हिंदू थे, लेकिन अन्य धर्मों के प्रति भी उतने ही सम्मानपूर्ण थे। उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दिया और विभिन्न समुदायों के बीच मध्यस्थता की।


पत्रकारिता और जनजागरण


मालवीय एक प्रखर पत्रकार भी थे। उन्होंने 1909 में अंग्रेजी भाषा के अखबार "लीडर" की स्थापना की, जो राष्ट्रीय विचारधारा को प्रसारित करने का एक प्रमुख माध्यम बना। उन्होंने "हिंदुस्तान टाइम्स" को भी पुनर्जीवित किया और इसे स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक स्वतंत्र आवाज बनाए रखा।


अपनी लेखनी के माध्यम से मालवीय ने गरीबी, बेरोजगारी, और अशिक्षा जैसे मुद्दों को उजागर किया और ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की। उनका मानना था कि एक जागरूक नागरिक समाज ही मजबूत लोकतंत्र की नींव रख सकता है।


कानूनी योगदान और स्वतंत्रता सेनानियों की रक्षा


मालवीय एक कुशल वकील भी थे। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत की और अपनी ईमानदारी और न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध हुए। उनकी सबसे बड़ी कानूनी उपलब्धियों में 1922 के चौरी-चौरा कांड में फंसे 177 स्वतंत्रता सेनानियों का बचाव था। उनके प्रयासों से कई लोगों को मौत की सजा से बचाया गया।


विरासत और सम्मान


भारत की आजादी और सामाजिक सुधारों में उनके योगदान के लिए उन्हें महात्मा गांधी ने "महामना" की उपाधि दी। 2014 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।


उनकी स्मृति आज भी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और उनके द्वारा किए गए कार्यों के माध्यम से जीवित है। उनका जीवन शिक्षा, एकता और सेवा के आदर्शों को प्रकट करता है, जो आज भी प्रासंगिक हैं।


निजी जीवन


अपने व्यस्त सार्वजनिक जीवन के बावजूद, मालवीय एक आदर्श पारिवारिक व्यक्ति थे। उनकी पत्नी कुंदन देवी और उनके पांच बच्चे थे। उनका जीवन सादगी और विनम्रता से परिपूर्ण था, जिसने उन्हें हर वर्ग के लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया।


निष्कर्ष


मदन मोहन मालवीय एक सच्चे राष्ट्रभक्त और जनसेवक थे। उनका जीवन प्रेरणा का स्रोत है, जो दिखाता है कि सेवा, समर्पण और दृढ़ संकल्प के साथ कोई भी महान उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षा और सामाजिक उत्थान के उनके विचार आज भी हमें एक बेहतर समाज और राष्ट्र के निर्माण की दिशा में प्रेरित करते हैं।


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