मैं कर ही क्या सकता हूँ...
मैं कर ही क्या सकता हूँ,
रोने के अलावा।
दर्द की बारिश में भीगकर,
आंसुओं का सहारा।
और क्या है मेरे पास,
अपना दर्द बताने के लिए?
शब्द चुप हैं, खामोश हैं,
सिर्फ आंसू बहाने के लिए।
मर तो नहीं सकता,
जिंदगी का कर्ज भारी है।
पर जी भी नहीं सकता,
यह दिल कितना बेचारी है।
कम से कम रो सकता हूँ,
इस दिल का बोझ हल्का करने।
जो बातें कह न सका,
वो अश्रुओं से बयां करने।
दुनिया तो कहती है,
"मजबूत बनो, सह लो।"
पर इस टूटे हुए दिल को,
कैसे समझाऊं, क्यों सह लो?
हर आंसू में छुपा है,
एक अधूरा सपना।
हर सिसकी के पीछे,
एक टूटे अरमान का अपना।
मैं कर ही क्या सकता हूँ,
सिवाय इन बहते दरिया के।
जो मेरे दर्द को ले जाए,
कहीं गहरे सागर के।
कभी सोचता हूँ,
क्या ये दर्द हमेशा रहेगा?
या किसी दिन ये दिल,
खुशियों का भी चांद देखेगा।
पर फिलहाल तो,
रोने का ही सहारा है।
जख्मों को छिपाने का,
यही एक सहारा है।
मैं कर ही क्या सकता हूँ,
रोने के अलावा।
कम से कम रो सकता हूँ,
इस दिल के दर्द को समझाने के अलावा।
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