स्त्री की पीड़ा

स्त्री की पीड़ा 

नहीं चाहिए ऐसा साथ,
जिसमें चूड़ियों की खनक
घुटन की चीख में बदल जाए।

नहीं चाहिए वो रिश्ता,
जहाँ सिंदूर हो लहू का,
और मंगलसूत्र हो एक जंजीर।

शादी नहीं, अकेलापन सही,
कम से कम आत्मा तो रोज़ नहीं कटेगी,
शरीर को रोज़ नहीं नोचा जाएगा।

क्या फायदा उस नाम के रिश्ते का,
जिसमें हर रात बलात्कार हो,
और हर सुबह मुस्कान की मजबूरी?

प्यार नहीं, पिंजरा बन गया है अब घर,
जहाँ औरत की आत्मा हर दिन दम तोड़ती है,
और समाज ताली बजाता है, चुप रह जाता है।

हाँ, बेहतर है तन्हा रहना,
बिना किसी की पत्नी बने,
बिना किसी की "मालिकियत" के जीना,
कम से कम इंसान तो रहूँगी।

मुझे नहीं चाहिए वो दुल्हन वाला जोड़ा,
जिसके पीछे छुपी हो मेरे ज़ख़्मों की चीख,
मेरे नाखूनों पर खून हो,
और मेरे सपनों पर ताले।

मैं अकेली सही, मगर आज़ाद हूँ,
कम से कम मेरी आत्मा मेरी है,
कोई उसे रौंद नहीं सकता,
कोई उसे कुचल नहीं सकता।

—रूपेश रंजन

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