मैं नहीं समझ सकता...



"मैं नहीं समझ सकता"

मैं गोरा हूँ —
अतः किसी श्यामवर्ण के तिरस्कार का अनुभव नहीं कर सकता,
मैं उस दृष्टि को नहीं जानता
जो रंग के आधार पर इज़्ज़त छीन लेती है।

मैं समृद्ध हूँ —
इसलिए भूख की जलन में करवट बदलती रातें नहीं समझ सकता,
मैं वातानुकूलित कक्ष में बैठा,
धूप में झुलसते श्रमिक की पीड़ा नहीं जान सकता।

मैं पुरुष हूँ —
तो एक स्त्री के मन में पलता निरंतर भय नहीं समझ सकता,
मैं नहीं जान सकता वो काँपती साँसें,
जब कोई परछाईं पीछा करती है संकरी गलियों में।

मैं उच्च जाति में जन्मा —
तो नीची जाति के माथे पर जमी हुई हेय दृष्टि की राख नहीं समझ सकता,
मैं नहीं समझ सकता वो मौन अपमान,
जो हर मंदिर, हर कुएँ से लौटाया गया।

मैं अपने शरीर से संतुष्ट जन्मा —
तो लिंगभेद का अनकहा संघर्ष नहीं समझ सकता,
मैं नहीं जान सकता उस पहचान को,
जो समाज की सीमाओं में दम तोड़ती है।

मैं शहर में पला-बढ़ा —
इसलिए गाँव की टूटी चप्पलों में दबे सपनों की आवाज़ नहीं सुन सकता,
मैं विकास की बातें करता हूँ,
पर वो पगडंडी नहीं देखता जहाँ बचपन गिरता है।

मैं केवल बोल सकता हूँ —
"मैं समझता हूँ", "मुझे दुःख है" कह सकता हूँ,
परंतु सत्य यह है —
मैं नहीं समझ सकता।
मैं केवल झूठ बोल सकता हूँ,
क्योंकि सच को भीतर तक जीना मेरे वश की बात नहीं।




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