दिखाए गए चित्रों से बने विचार — हम कभी स्वतंत्र या निष्पक्ष नहीं होते

 



 दिखाए गए चित्रों से बने विचार — हम कभी स्वतंत्र या निष्पक्ष नहीं होते

हर सुबह जब हम अपनी आंखें खोलते हैं, तो हमारी चेतना पर एक बाढ़ सी आ जाती है — होर्डिंग्स, सोशल मीडिया की तस्वीरें, टीवी स्क्रीन, विज्ञापन, इंस्टाग्राम पोस्ट, और फोटोशॉप से सजी हुई दुनिया। ये चित्र केवल हमारे आस-पास नहीं होते; ये हमारे मन में घर कर लेते हैं, हमारे सोचने का तरीका, हमारी इच्छाएँ, हमारे निर्णय और यहाँ तक कि हमारी पहचान को भी आकार देते हैं।

सच थोड़ा असहज करने वाला है: हमारे अधिकतर विचार वास्तव में हमारे अपने नहीं होते। वे हमारे देखे गए चित्रों द्वारा बनाए और ढाले जाते हैं। और जो हम देखते हैं, वह शायद ही कभी हमने स्वयं चुना हो।


स्वतंत्र सोच का भ्रम

हम अक्सर मानते हैं कि हम स्वतंत्र रूप से सोचते हैं — तर्क और अनुभव के आधार पर। लेकिन अगर हम ईमानदारी से सोचें, तो क्या वास्तव में हम यह तय करते हैं कि कौन सुंदर है? किस रंग का क्या अर्थ है? किन चेहरों पर भरोसा किया जाए?

ये विचार हवा में नहीं आते। वे लगातार दिखाए गए चित्रों, फिल्मों, विज्ञापनों और सोशल मीडिया ट्रेंड्स से उपजे होते हैं। हमारे निर्णय, हमारी पसंद — सब कुछ सीमित होता है, उस दुनिया के अनुसार जो हमें "दिखाई" जाती है।


पूर्वाग्रह का आईना

चित्र केवल दुनिया को प्रतिबिंबित नहीं करते, वे उसे गढ़ते हैं। एक न्यूज़ चैनल द्वारा बार-बार दिखाए जाने वाला चेहरा किसी समुदाय को अपराधी साबित कर सकता है, वहीं एक फिल्म का किरदार हमें यह सिखा सकता है कि "आदर्श" प्यार या शरीर कैसा दिखना चाहिए।

यहाँ तक कि जब हम इन बातों का विरोध करते हैं, तब भी हम उन्हीं चित्रों की प्रतिक्रिया में सोच रहे होते हैं — फिर भी उसी जाल में फंसे हुए।


मौन की कठपुतलियाँ

इन चित्रों का प्रभाव अक्सर बहुत चुपचाप होता है। एक विज्ञापन का प्रकाश किसी राजनेता को "सशक्त" बना सकता है। एक इंस्टाग्राम रील हमें बिना कहे यह महसूस करा सकती है कि हमारी ज़िंदगी "कम" है। ये सब बातें हमारे अवचेतन में चली जाती हैं — हम सोचते हैं हम समझदार हैं, पर पर्दे के पीछे की डोरें कहीं और से खिंच रही होती हैं।


क्या हम कभी स्वतंत्र हो सकते हैं?

पूरी तरह स्वतंत्र होना शायद एक कल्पना हो — हम सभी समाज, अनुभव और संस्कृति से बने हैं। लेकिन स्वतंत्रता की शुरुआत जागरूकता से होती है। जब हम पूछना शुरू करते हैं:
"ये चित्र किसने चुने?",
"ये मुझे क्या दिखाना चाहते हैं?",
"जो नहीं दिखाया गया, वो क्या था?"
तब हम उस नियंत्रण को थोड़ा कम कर पाते हैं।

हम शायद कभी पूर्णतः निष्पक्ष न हों। लेकिन हम सचेत हो सकते हैं।
और आज की छवि-प्रधान दुनिया में, सचेत रहना ही प्रतिरोध है।


समापन विचार:

हम अक्सर सत्य की तलाश भीतर करते हैं।
शायद शुरुआत बाहर से करनी चाहिए — उन चित्रों को देखकर जो हमारे विचार बना रहे हैं।
और पूछना चाहिए:
"जिस लेंस से मैं दुनिया देख रहा हूँ, वह बनाया किसने?"



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