"क्या यही न्याय है?"



"क्या यही न्याय है?"

कभी एक माँ थी...
जो बेटे के लिए पूजा करती थी,
अब हथौड़े थामे
उसी बेटे के लहू से होली रचती है।

कभी बहन थी,
जो राखी में रक्षा मांगती थी,
अब वही बहन
भाई की साँसों की डोरी तोड़ती है।

कभी पत्नी थी,
जो पाँव छूती थी,
अब वो ही
पति की गर्दन पर वार करती है।

क्या यही न्याय है?
या एक पलटा हुआ अन्याय है?
जो सदियों की पीड़ा का उत्तर
अब निर्दोष रगों में भरता है?पहले वो मारी जाती थीं,

अब वो मार रही हैं।
पहले वो रोती थीं,
अब वो हँसती हैं — लहू की धुन में।

कहाँ गया वो करुणा का दीप?
कहाँ गई वो ममता की बूँद?
क्या आधुनिकता ने
हर रिश्ते को बना दिया है एक जंग का मैदान?

तुम कहते हो –

"हमने वर्षों तक अन्याय सहा है,
अब हम जवाब देंगे।"
पर क्या उत्तर भी हिंसा होना चाहिए?

क्या यही सबक देंगे हम बेटियों को?
कि बदले की आग
घर के ही दीवारों को जलाए?


"न्याय नहीं, पुनरावृत्ति हो रही है"

न्याय तब होता है
जब घाव भरते हैं —
ना कि
जब नई तलवारें उठती हैं।




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