प्रेम का स्वभाव और उसकी सीमाएं...
प्रेम का स्वभाव और उसकी सीमाएं...
प्रेम करना स्वाभाविक है। यह किसी योजना, किसी कर्मकांड, किसी अनुबंध या अनुशासन से नहीं बंधता। यह हृदय की सहज और आत्मिक प्रक्रिया है। प्रेम करना तो सहज था — पर किसी एक के लिए "हमेंशा के लिए" उसका बन जाना, यह बात मन की सीमाओं से परे थी। क्या प्रेम वास्तव में किसी बंधन की मांग करता है?
हम जब प्रेम करते हैं, तो यह एक व्यवहार होता है — एक भावनात्मक उत्तरदायित्व नहीं, बल्कि एक सहज अनुभूति। यह प्रकृति का ही एक अंश है। जैसे नदियाँ बहती हैं, जैसे वायु बहती है, जैसे फूल खिलते हैं, ठीक वैसे ही प्रेम होता है। यह न कोई कार्य है, न कोई प्रयोजन। प्रेम अपने आप में परिपूर्ण है — बिना अपेक्षा के, बिना परिणाम के।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, पर उससे भी पहले वह एक आत्मिक सत्ता है। मेरा प्रेम भी इसी आत्मिक स्तर पर जुड़ा होता है — सम्पूर्ण सृष्टि के जीवों से। यह प्रेम सबके लिए समान नहीं हो सकता, क्योंकि मेरे मन की अनुभूतियाँ अलग-अलग हैं। किसी के प्रति थोड़ी अधिक आसक्ति, किसी के प्रति थोड़ी कम।
यह कोई अन्याय नहीं, यह एक भावनात्मक संतुलन है।
जिनके साथ मैं हूं, उनसे मेरा जुड़ाव गहरा होता है — शायद इसलिए कि मैं उन्हें हर दिन अनुभव करता हूं, उनके सुख-दुख का साक्षी बनता हूं। उनके लिए मेरा प्रेम थोड़ा अधिक हो जाता है।
जिनसे मैं दूर हूं, जिनका साथ नहीं है, उनसे भी प्रेम तो है — पर वह स्मृतियों और कल्पनाओं में बसा हुआ है, थोड़ा मद्धम, थोड़ा कोमल, जैसे कोई धीमी रौशनी।
प्रेम कोई वादा नहीं होता — यह एक स्पंदन है, एक भाव है, जो पल-पल बदलता है, गहराता है, या कभी-कभी क्षीण भी होता है। पर यह समाप्त नहीं होता।
प्रेम हर बार नया रूप लेकर आता है — कभी मित्रता के रूप में, कभी सेवा के रूप में, कभी मौन में, और कभी पूरी दुनिया से दूर सिर्फ अपने भीतर।
इसलिए मैं यह मानता हूं कि प्रेम करना जीवन का सहज धर्म है। किसी के प्रति 'हमेशा के लिए' बंध जाना, शायद प्रेम को ही सीमित कर देना है। प्रेम तब तक शुद्ध और मुक्त है, जब तक उसमें बंधन नहीं जोड़ा जाता।
निष्कर्षतः,
प्रेम किया जाए — पर अधिकार की भावना से नहीं।
प्रेम किया जाए — पर एकरसता के मोह में नहीं।
प्रेम किया जाए — जैसे सूरज करता है,
सबको रोशनी देता है,
बिना किसी भेदभाव के,
बिना किसी स्वार्थ के।
- लेखक की अनुभूतियों से
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