क्या एडीजी का बयान पुलिस और सरकार की असंवेदनशीलता को उजागर करता है?
क्या एडीजी का बयान पुलिस और सरकार की असंवेदनशीलता को उजागर करता है?
हाल ही में बिहार के एडीजी (मुख्यालय) कुंदन कृष्णन का बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा कि राज्य में अप्रैल से जून के महीनों में हत्याएं अधिक होती हैं, क्योंकि किसानों के पास इस समय कोई काम नहीं होता। इस बयान ने न सिर्फ मीडिया में हलचल मचा दी, बल्कि आम जनता और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच पुलिस और सरकार की मानसिकता पर सवाल खड़े कर दिए।
क्या यह संवेदनहीनता नहीं है?
जब एक शीर्ष पुलिस अधिकारी किसी राज्य में हो रही हत्याओं को केवल "खाली समय" का परिणाम बताता है, तो यह एक गंभीर संवेदनहीनता (insensitivity) का संकेत है। अपराध, विशेष रूप से हत्या जैसी संगीन घटनाएं, किसी के जीवन का अंत होती हैं। इसे इस तरह से सामान्यीकृत करना — मानो यह कोई मौसमी प्रक्रिया हो — प्रशासन की मानसिकता पर सवाल उठाता है।
क्या हम यह मान लें कि अपराध को रोका नहीं जा सकता, बस सह लिया जाए क्योंकि "ये हर साल होते हैं"?
प्रशासन की निष्क्रियता का प्रतीक
यह बयान कहीं न कहीं यह भी दर्शाता है कि पुलिस और सरकार को इस प्रवृत्ति की जानकारी है, फिर भी पूर्व-नियोजन या रोकथाम की कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जाती। अगर वर्षों से यह पैटर्न देखा जा रहा है, तो:
- अप्रैल से जून के बीच गांवों में पुलिस गश्ती क्यों नहीं बढ़ाई जाती?
- रोजगार गारंटी योजनाओं (जैसे मनरेगा) को इन महीनों में ज्यादा सक्रिय क्यों नहीं किया जाता?
- युवाओं के लिए अल्पकालिक कार्यशालाएं, ट्रेनिंग या सामुदायिक गतिविधियाँ क्यों नहीं चलाई जातीं?
यह सब दर्शाता है कि सरकार और पुलिस को समस्या की जानकारी तो है, लेकिन उसे गंभीरता से लेने और हल करने की इच्छाशक्ति शायद नहीं है।
किसानों की छवि को नुकसान
एडीजी का यह बयान सीधे तौर पर किसानों और ग्रामीण समाज की छवि पर भी आघात करता है। क्या खाली समय का मतलब यह मान लिया जाए कि लोग अपराध करेंगे? यह एक सामाजिक कलंक जैसा है जो मेहनतकश किसान वर्ग के ऊपर डाला जा रहा है।
किसान वह वर्ग है जो पूरे देश को खाना देता है, और उसे इस तरह अपराध से जोड़ देना, पूरी तरह अन्यायपूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण है।
जरूरत है संवेदनशील और जवाबदेह प्रशासन की
प्रशासन का यह काम है कि वह ना सिर्फ अपराध को रोके, बल्कि उसके मूल कारणों को समझकर समाधान दे। बेरोजगारी, गरीबी, शिक्षा की कमी और सामाजिक असंतुलन — ये सभी अपराध के मूल कारण हैं। इन्हें नजरअंदाज कर सिर्फ आंकड़ों से बात करना एक मानवता-विहीन रवैये को दर्शाता है।
निष्कर्ष: क्या यह चेतावनी नहीं है?
कुंदन कृष्णन का बयान एक चेतावनी है — सिर्फ अपराध बढ़ने की नहीं, बल्कि प्रशासन की सोच के गिरते स्तर की। अगर इस सोच में बदलाव नहीं आया, तो हम अपराध नहीं, समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं।
हमें एक ऐसे तंत्र की ज़रूरत है जो आंकड़े गिनाने की बजाय, समाधान प्रस्तुत करे, जो संवेदनहीन टिप्पणियों की बजाय संवेदनशील कार्ययोजनाएं बनाए, और जो जनता के जीवन की कद्र करे — उसे सिर्फ आंकड़ों की नजर से न देखे।
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