प्रेम थोड़ा नहीं... बहुत ज़्यादा चाहिए — पूरे संसार में, पूरे ब्रह्मांड में



 प्रेम थोड़ा नहीं... बहुत ज़्यादा चाहिए — पूरे संसार में, पूरे ब्रह्मांड में

इस संसार में जहाँ हर दिन नफ़रत, विभाजन, भेदभाव और आत्मकेंद्रितता बढ़ रही है — वहाँ एक ही शक्ति है जो वास्तव में उपचार कर सकती है, और वह है प्रेम
यह कोई साधारण प्रेम नहीं, जो केवल अपने तक सीमित हो। यह वह प्रेम है जो व्यापक, असीम, और निर्विशेष हो — जो धर्म, जाति, रंग, भाषा या सीमाओं से परे हो।

जैसे कोई आत्मा पुकार उठती है:
"प्रेम थोड़ा नहीं… बहुत ज़्यादा प्रेम चाहिए… पूरे संसार में… पूरे ब्रह्मांड में…"
यह केवल कविता नहीं है — यह मनुष्य की अंतरात्मा की पुकार है, मानवता की ज़रूरत है, और आज के युग की सबसे बड़ी माँग है।


प्रेम कोई विलासिता नहीं है, यह जीवन की आवश्यकता है

बहुत से लोग प्रेम को एक निजी भावना मानते हैं — माता-पिता, साथी, बच्चों या मित्रों तक सीमित। परंतु प्रेम केवल रिश्तों तक सीमित नहीं होता। यह एक सार्वभौमिक ऊर्जा है — जैसे गुरुत्वाकर्षण, जो सबको जोड़ती है, सबमें समाहित होती है।

आज नफ़रत सस्ती और सुलभ हो गई है —
राजनीति इसका व्यापार कर रही है,
सोशल मीडिया इसका प्रचार कर रहा है,
और आम जीवन इसका शिकार हो रहा है।

लेकिन नफ़रत का परिणाम क्या होता है?
टूटे हुए रिश्ते, बिखरे हुए समाज, और घायल आत्माएँ।
वहीं प्रेम क्या करता है?
वह जोड़ता है, संवारता है, और जीवन को अर्थ देता है।


थोड़ा प्रेम अब पर्याप्त नहीं है

अब समय आ गया है कि हम प्रेम की मात्रा को सीमित करना बंद करें

  • हर बातचीत में प्रेम झलके।
  • हर निर्णय में करुणा हो।
  • हर नीति और व्यवस्था में इंसानियत हो।

हमें प्रेम को अपने जीवन की रीढ़ बनाना होगा — केवल ख़्याल नहीं, व्यवहार में भी।


व्यक्तिगत से वैश्विक: प्रेम को बनाएं प्रकाश की तरह

कल्पना कीजिए एक दीपक की जो अंधेरे कमरे में जल रहा हो। वह केवल उस स्थान को रोशन नहीं करता जहाँ वह रखा है, बल्कि पूरा कमरा आलोकित हो जाता है।
हमारा प्रेम भी वैसा ही दीपक हो सकता है।

जब हम प्रेम करते हैं — अजनबियों से, प्रकृति से, या स्वयं से —
तो उसकी तरंगें चारों ओर फैलती हैं।
यह प्रेम एक श्रृंखला बनाता है,
जो अंततः दुनिया के भावनात्मक तापमान को बदल सकता है।

कहा भी गया है — "जहाँ प्रेम है, वहीं ब्रह्म है।"


नफ़रत से बेहतर है प्रेम — सदैव

हमें क्रोध को ताक़त समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।
हमें नफ़रत को पहचान नहीं बनाना चाहिए।
यह सब भ्रम है।

सच्ची ताक़त क्षमा में है।
सच्चा बल करुणा में है।
सच्चा विकास प्रेम में है।

प्रेम किसी धर्म की बपौती नहीं है।
कोई भी बच्चा नफ़रत के साथ जन्म नहीं लेता।
ये सब सीखा गया है — और इसे मिटाया भी जा सकता है।
लेकिन प्रेम — वह तो जन्मजात, प्राकृतिक और दैवीय है।


निष्कर्ष: जहाँ प्रेम होगा, वहीं जीवन होगा

इस दुनिया को जीवित रखने के लिए —
ना केवल जैविक रूप से, बल्कि भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से —
हमें प्रेम की कोई सीमा नहीं रखनी चाहिए।

थोड़ा नहीं,
पूरा दिल खोलकर प्रेम दीजिए।

हर दिन, हर दिशा में, हर जीव से।

क्योंकि जब तक प्रेम बह रहा है,
उम्मीद जीवित है — हमारे लिए, इस संसार के लिए, और पूरे ब्रह्मांड के लिए।




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