विभाजन के शहीदों की स्मृति (1947)
विभाजन के शहीदों की स्मृति (1947)
सन् 1947 को हम स्वतंत्रता का वर्ष मानते हैं—भारत को आज़ादी मिली और पाकिस्तान का जन्म हुआ। लेकिन इन उत्सवों के पीछे एक ऐसी मानवीय त्रासदी छिपी है जिसे इतिहास का सबसे बड़ा ज़ख्म कहा जा सकता है—भारत-पाकिस्तान का विभाजन। नेताओं ने काग़ज़ पर रेखाएँ खींचीं, पर इन रेखाओं की असली कीमत आम आदमी ने अपने खून और आंसुओं से चुकाई।
विभाजन की मानवीय त्रासदी
विभाजन मानव इतिहास का सबसे बड़ा जबरन पलायन था। लगभग 1.2 से 1.5 करोड़ लोग अपने घर-बार छोड़कर नई सीमाओं के पार चले गए। लाखों लोग शरणार्थी बन गए। अनुमान है कि 10 से 20 लाख तक लोग हिंसा, आगज़नी, बीमारियों और भूख से मारे गए।
ये मौतें रणभूमि पर नहीं हुईं। ये मौतें रेलगाड़ियों में हुईं, जिनमें यात्री नहीं, लाशें पहुंचीं। ये मौतें उन सड़कों पर हुईं जहाँ शरणार्थियों के काफ़िले भूख और प्यास से ढह गए। ये मौतें उन घरों में हुईं जो अचानक “ग़लत” तरफ़ चले गए।
क्यों कहें इन्हें शहीद?
हम शहीद उन्हें कहते हैं जो किसी बड़े उद्देश्य के लिए प्राण न्यौछावर कर देते हैं। स्वतंत्रता सेनानी और सैनिक इस सम्मान के पात्र हैं। लेकिन अगर हम दृष्टिकोण को विस्तृत करें, तो विभाजन में मारे गए लोग भी इस श्रेणी में आते हैं।
- स्वतंत्रता की कीमत: भारत और पाकिस्तान की स्वतंत्रता उनकी पीड़ा और बलिदान के बिना अधूरी है।
- साझा शहादत: हिंदू, मुसलमान, सिख—सबने एक जैसी त्रासदी झेली। विभाजन के शहीद किसी एक धर्म या देश के नहीं, मानवता के हैं।
- अनचाहा बलिदान: उन्होंने स्वेच्छा से नहीं, पर हालात ने उन्हें शहीद बनाया। फिर भी उनकी मृत्यु राष्ट्र निर्माण से सीधे जुड़ी रही।
वे कहानियाँ जो याद रहनी चाहिए
इतिहास केवल आँकड़े बताता है, लेकिन हर आँकड़े के पीछे एक चेहरा था, एक परिवार था:
- वह माँ जो बच्चों को गोद में लेकर सुरक्षित गाड़ी में बैठी, लेकिन गाड़ी पहुँची तो उसमें सिर्फ़ लाशें थीं।
- वह किसान जिसने पीढ़ियों से जोती ज़मीन को छोड़ा और परदेस में खाली हाथ पहुँचा।
- वह बच्चा जो भीड़ में परिवार से बिछड़ा और फिर कभी नहीं मिला—जिसका नाम तक इतिहास दर्ज़ न कर सका।
ये सब विभाजन के शहीद थे।
विश्व से सीख
दुनिया के कई देश अपने नागरिक पीड़ितों को शहीद का दर्जा देते हैं:
- होलोकॉस्ट के पीड़ितों को पूरी दुनिया शहीद मानती है।
- अर्मेनियाई नरसंहार के शिकार लोग "राष्ट्र के शहीद" कहलाते हैं।
- रवांडा नरसंहार के पीड़ित शांति के शहीद के रूप में याद किए जाते हैं।
भारत और पाकिस्तान भी विभाजन पीड़ितों को शहीद मानकर पीढ़ियों के घाव भर सकते हैं।
स्मृति की संस्कृति की ओर
आज भी विभाजन की यादें शरणार्थी परिवारों में ज़िंदा हैं—किसी दादी की चुप्पी में, किसी दादा की आँखों के आँसुओं में, किसी पुराने संदूक में जो सरहद पार लाया गया था। यह स्मृति जीवित है, पर इसे राष्ट्रीय मान्यता की आवश्यकता है।
- भारत और पाकिस्तान में विभाजन स्मारक स्थापित हों।
- पाठ्यक्रम में विभाजन शहीदों का ज़िक्र शामिल हो।
- हर वर्ष एक विभाजन शहीद दिवस मनाया जाए, जो दोनों देशों के बीच करुणा और समझ की पुल बने।
निष्कर्ष
विभाजन में मारे गए लोगों को शहीद कहना उनकी पीड़ा को महिमामंडित करना नहीं है, बल्कि उनके मानवीय बलिदान को स्वीकार करना है। उन्होंने अपने प्राणों से यह सुनिश्चित किया कि भारत और पाकिस्तान का जन्म हो सके।
वे हमें याद दिलाते हैं कि स्वतंत्रता कभी मुफ़्त नहीं होती, और शांति को हल्के में नहीं लेना चाहिए।
विभाजन के शहीद किसी एक देश के नहीं, हम सबके हैं। उन्हें याद करना ही सही मायनों में स्वतंत्रता का सम्मान करना है।
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