भारत विभाजन 1947 : राजनीतिक अपरिपक्वता की त्रासदी



भारत विभाजन 1947 : राजनीतिक अपरिपक्वता की त्रासदी

भारत का विभाजन केवल भौगोलिक सीमाओं का खिंचाव नहीं था, बल्कि यह साझा इतिहास, संस्कृति और सामाजिक संबंधों का बंटवारा था। लाखों लोग विस्थापित हुए, लाखों ने अपनी जान गंवाई और पीढ़ियों तक यह दर्द समाज में गूंजता रहा। विभाजन के कई कारण गिनाए जाते हैं—औपनिवेशिक नीतियाँ, धार्मिक भिन्नताएँ और सत्ता की खींचतान—लेकिन इसके मूल में जो तत्व सबसे निर्णायक था, वह था राजनीतिक अपरिपक्वता (Political Immaturity)

राष्ट्रीय सहमति का अभाव

स्वाधीनता आंदोलन आदर्शों से परिपूर्ण था, लेकिन उसमें सर्वसम्मति निर्माण की क्षमता कमजोर रही। विभिन्न वर्गों और समुदायों की आकांक्षाओं को समाहित करने के बजाय नेताओं ने अक्सर अपने-अपने दृष्टिकोण को ही अंतिम मान लिया। धैर्य और लम्बी वार्ता के बजाय तात्कालिक समझौते ही राजनीति की दिशा तय करते रहे।

सत्ता पर अत्यधिक ध्यान, जनता की अनदेखी

ब्रिटिश शासन, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच होने वाली चर्चाएँ धीरे-धीरे इस प्रश्न तक सीमित हो गईं कि आज़ादी के बाद सत्ता किसके हाथ में होगी। जनता की समस्याएँ—सुरक्षा, शिक्षा, आजीविका—पिछली पंक्ति में चली गईं। एक परिपक्व राजनीति से अपेक्षा थी कि वह दीर्घकालिक दृष्टि और जनहित पर केंद्रित हो, लेकिन इसके स्थान पर सत्ता की होड़ ने वातावरण को विषाक्त बना दिया।

सांप्रदायिक पहचान का दुरुपयोग

ब्रिटिश साम्राज्य ने “फूट डालो और राज करो” की नीति से साम्प्रदायिक तनाव बो दिए थे। परिपक्व नेतृत्व की आवश्यकता थी कि वह इन विभाजनों को भर दे, परंतु इसके उलट हिंदू-मुस्लिम राजनीति जनसमर्थन जुटाने का माध्यम बन गई। राजनीतिक अपरिपक्वता इस रूप में सामने आई कि नेताओं ने यह समझा ही नहीं कि एक बार सांप्रदायिक भावनाएँ भड़कने पर उन्हें नियंत्रित करना असंभव हो जाएगा।

संघीय ढांचे की कल्पना का अभाव

यदि परिपक्व दृष्टिकोण अपनाया गया होता तो भारत में संघीय संरचना, विकेन्द्रीकरण और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की ठोस गारंटी जैसे विकल्पों पर गंभीर विमर्श हो सकता था। दुर्भाग्यवश, कठोर और परस्पर विरोधी रुख अपनाए गए—या तो एक केन्द्रित भारत या फिर अलग पाकिस्तान। इस जड़ता ने रचनात्मक समाधान के सभी रास्ते बंद कर दिए।

निर्णय लेने में हड़बड़ी

रेडक्लिफ़ आयोग द्वारा जल्दबाज़ी में सीमाएँ खींची गईं और नेताओं ने इसे स्वीकार भी कर लिया। परिपक्व राजनीति में अपेक्षा थी कि सुरक्षित पलायन, पुनर्वास और सीमा निर्धारण की विस्तृत योजना बनाई जाती। परन्तु ऐसा न होकर विभाजन अव्यवस्थित और रक्तरंजित बन गया।

अपरिपक्वता की मानवीय कीमत

इस अपरिपक्वता का बोझ आम जनता पर पड़ा। किसान, मज़दूर और परिवार—जिन्होंने कभी सत्ता की लड़ाई में भाग नहीं लिया—उन्हीं को सबसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। एक करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए और लाखों जीवन समाप्त हो गए।

वर्तमान के लिए शिक्षा

1947 का विभाजन यह सिखाता है कि राजनीतिक अपरिपक्वता केवल नेताओं की कमजोरी नहीं होती, बल्कि वह राष्ट्रों की नियति तय करती है। संवाद का अभाव, दूरदृष्टि की कमी और सामंजस्य की उपेक्षा, समाज को स्थायी घाव देती है। आज भी दक्षिण एशिया उन्हीं जख्मों के साथ जी रहा है।

निष्कर्ष

विभाजन अपरिहार्य नहीं था। यह राजनीतिक अपरिपक्वता का परिणाम था—नेताओं की अधीरता, संकीर्ण दृष्टि और आपसी अविश्वास का नतीजा। यदि धैर्य, समावेशिता और दूरदृष्टि दिखाई जाती, तो भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास शायद अलग होता। 1947 की त्रासदी हमें यह याद दिलाती है कि राजनीतिक परिपक्वता विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता है।



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