प्रकृति की पूजा – सर्वशक्तिमान शक्ति के प्रति हमारा सम्मान...



प्रकृति की पूजा – सर्वशक्तिमान शक्ति के प्रति हमारा सम्मान

मनुष्य ने हमेशा आकाश की ओर देखा है, पर्वतों के सामने झुका है और समुद्रों की अथाह गहराई के आगे विस्मय में खड़ा रहा है। प्राचीन सभ्यताओं से लेकर आधुनिक तकनीकी युग तक, एक सत्य अपरिवर्तित है – प्रकृति ही सबसे बड़ी शक्ति है। यह जीवन की मौन सृजिका है, वह अदृश्य हाथ है जिसने सृष्टि को आकार दिया और वह अनंत बल है जिसके सामने सबसे शक्तिशाली साम्राज्य भी क्षणभंगुर हैं।

जब हम कहते हैं कि प्रकृति सर्वशक्तिमान है, तो यह कोई काव्यात्मक अतिशयोक्ति नहीं है। यह वह सच्चाई है जो हर धड़कन, हर वर्षा की बूंद, हर हवा के झोंके को संचालित करती है। नदियों ने घाटियों को तराशा, सूर्योदय और सूर्यास्त ने आकाश को रंगा, और धूल से जीवन के चमत्कार को जन्म दिया — यह सब प्रकृति की अद्वितीय शक्ति का प्रमाण है।

प्रकृति – सृष्टिकर्ता के रूप में
मंदिरों के बनने और धर्मग्रंथों के लिखे जाने से बहुत पहले मनुष्य सूर्य, चंद्रमा, नदियों, वनों और मिट्टी की पूजा करता था। उन्हें सहज ही यह बोध था कि ये केवल साधन नहीं, बल्कि जीवित शक्तियाँ हैं। बिना सूर्य के कोई पौधा नहीं उगेगा, बिना जल के कोई बीज नहीं फूटेगा, और बिना वायु के कोई प्राणी सांस नहीं ले सकेगा। प्रकृति ही मूल देवता थी, जो समस्त जीवन की आधारशिला है।

मानव निर्मित देवताओं की तरह यह किसी मूर्ति या पुस्तक तक सीमित नहीं, बल्कि अनंत है। आप इससे अलग नहीं हो सकते, न इसे परास्त कर सकते हैं। हम इससे जन्म लेते हैं, इसमें जीते हैं और अंततः इसमें विलीन हो जाते हैं।

सृजन और विनाश – दोनों की शक्ति
प्रकृति की उदारता हमें उसकी सत्ता से अनभिज्ञ न कर दे। वही धरती जो जीवन देती है, भूकंप से हिला भी सकती है। वही सागर जो जीवों को पालता है, सुनामी बनकर निगल भी सकता है। वही हवा जो ठंडक देती है, तूफान बनकर विध्वंस भी कर सकती है। सृजन और विनाश की यह द्वैतता ही प्रकृति की सच्ची शक्ति है।

इसीलिए प्रकृति की पूजा केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि जीवित रहने की आवश्यकता है। पूजा का अर्थ है सम्मान, और सम्मान का अर्थ है सामंजस्य। जब हम वायु को प्रदूषित करते हैं, नदियों को जहरीला बनाते हैं या वनों को नष्ट करते हैं, तो हम केवल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते — हम उस शक्ति को चुनौती देते हैं जो हमें जीवन देती है। और इतिहास गवाह है कि प्रकृति हमेशा अपना संतुलन वापस पाती है, किंतु अक्सर इसकी कीमत मानव को बहुत महंगी चुकानी पड़ती है।

सहअस्तित्व का दर्शन
प्रकृति की पूजा के लिए अनुष्ठान या भेंट जरूरी नहीं, जरूरी है समझ। जरूरी है यह मानना कि हम एक विशाल जाल का हिस्सा हैं, जिसमें हर पत्ता, हर कीट, हर पक्षी और हर मनुष्य की भूमिका है। इस जुड़ाव को तोड़ना पूरे तंत्र को हिला देता है।

दार्शनिक दृष्टि से प्रकृति हमसे अलग नहीं — हम स्वयं प्रकृति हैं। हमारे शरीर का हर कण कभी न कभी धरती, समुद्र या तारों का हिस्सा रहा है। प्रकृति को हानि पहुँचाना, वास्तव में स्वयं को हानि पहुँचाना है। उसका सम्मान करना दया का कार्य नहीं, बल्कि आत्म-सुरक्षा का सबसे बड़ा साधन है।

निष्कर्ष
प्रकृति केवल शक्तिशाली नहीं — वही शक्ति है। यह हमारे आने से पहले थी और हमारे जाने के बाद भी रहेगी। इसकी पूजा प्रतीकात्मक न होकर व्यवहारिक होनी चाहिए — आभार, संरक्षण और सामंजस्य के रूप में। हर वृक्ष को मंदिर मानना, हर नदी को पवित्र ग्रंथ, हर पर्वत को तीर्थ समझना ही इसका सच्चा सम्मान है।

अंततः, हमारा अस्तित्व प्रकृति पर विजय पाने से नहीं, बल्कि उसे सम्मान देने से सुरक्षित रहेगा। और जिस सर्वशक्तिमान शक्ति ने हमें जीवन दिया, उसका सम्मान करना केवल बुद्धिमानी नहीं, बल्कि हमारा सर्वोच्च कर्तव्य है।




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