मौत भी कितनी हसींन और रवाँ लगती है,
मौत भी कितनी हसींन और रवाँ लगती है,
जब हक़ की जंग जुनूँ से जवाँ लगती है।
हर ज़ंजीर-ए-रवायत से निकलना है मुझे,
आज़ादी की राह ही अब आसमाँ लगती है।
दास्तूर-ओ-रिवाज़ की बुनियादें हिला दूँ मैं,
इंक़लाब की नज़र से जो बयाँ लगती है।
सदियों का बोझ उठाना गवारा नहीं अब,
सरफ़रोशी की क़सम ही दवा लगती है।
‘रुपेश’ हक़ की सदा है मेरा पैग़ाम-ए-वजूद,
वो सदा जिसको सदा से दुआ लगती है।
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कुछ लोग दूर रह के अजब सुकूँ देते हैं,
ये राज़ तो उनके जाने के बाद समझ आते हैं।
ज़िक्र-ए-वफ़ा भी करते हैं अक्सर महफ़िल में,
मगर निगाहों में और ही मानी छुपाते हैं।
जो रह के पास भी दिल को तन्हा कर जाएँ,
वो ज़ख़्म उम्र भर ख़ामोशी से जलाते हैं।
हर मुस्कुराहट में इक ख़लिश का आलम है,
जो आँसुओं के सफ़र का पता बताते हैं।
'रुपेश' हम से न पूछ इश्क़ की तलब क्या है,
ये दर्द ही तो हमें जीने के सबब देते हैं।
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अकेलापन कभी तन्हा नहीं होता,
उसकी खामोशी में भी सैकड़ों आवाज़ें गूंजती हैं।
ये रूह की चौखट पर दस्तक देता है,
जहाँ इंसान और खुदा आमने-सामने बैठते हैं।
हर तन्हाई में कोई अदृश्य सरगम बजती है,
जिसे सुनने वाले को फ़ना में भी चैन मिलता है।
ये तन्हाई ही तो है जो परदे उठाती है,
दुनियावी शोर से परे असल पहचान कराती है।
अकेलापन दरअसल हिज्र नहीं, विसाल है,
जहाँ इंसान अपनी आत्मा में खुदा का जमाल है।
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