“भेड़िए घात लगाकर बैठे हैं।”



भेड़िए घात लगाकर बैठे हैं।

हम तो पहले ही नंगे हैं,
बेशर्म,
लालच से अंधे,
भीड़ में छिपे हुए,
मासूमियत का खून चखने को तैयार।

मौका देखते ही हमला कर देते हैं—
कभी ट्रेन में,
कभी बस में,
कभी गली के अंधेरे मोड़ पर,
और अब तो कॉलेज की दीवारों के भीतर भी।


हाल का किस्सा

एक बच्ची—
इंजीनियरिंग कॉलेज की छात्रा,
सपनों की दुनिया बनाने चली थी,
भविष्य की नींव डालने चली थी।

पर उसी के कॉलेज के मेस का रसोइया
उसके सपनों पर गिद्ध बनकर टूटा।
उम्र का लिहाज़ भूल गया,
पेशा भूल गया,
मानवता तक भूल गया।

वह सिर्फ रसोइया नहीं था—
वह भेड़िया था।
छुपा हुआ,
घात लगाकर बैठा हुआ।


समाज से सवाल

क्या हम यही हैं?
क्या यही इंसानियत है?
क्या हर बच्ची को डरना होगा
कि कहीं उसके आसपास का हर दूसरा चेहरा
भेड़िया न हो?


अब और चुप्पी नहीं!

लड़कियों से कहता हूँ—
डरो मत।
तुम्हारी चुप्पी इन दरिंदों की ताकत है।
तुम्हारी आवाज़ ही
उनकी सबसे बड़ी हार है।

लड़कों से कहता हूँ—
नज़र नीची नहीं,
नज़र पवित्र करो।
स्त्री को देह मत समझो—
वह शक्ति है,
जननी है,
पूरी सृष्टि की नींव है।


गुस्सा और बदलाव

ये गुस्सा सिर्फ शब्दों तक न रहे।
ये गुस्सा कानून तक पहुँचे,
सड़कों तक पहुँचे,
और भेड़ियों को यह एहसास हो जाए
कि समाज अब चुप नहीं बैठेगा।

जो बच्ची कॉलेज में रोकी गई,
वह कल मंच पर खड़ी होगी।
वह इंजीनियर बनेगी,
और उसका हर सपना पूरा होगा।

क्योंकि भेड़िए हारेंगे,
और इंसानियत जीतेगी।


रूपेश रंजन

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