इसलिए धन्यवाद देना ही होगा—
मैं अकेला नहीं हूँ इस अनंत व्योम में,
मेरे ज्ञान का हर कण, हर स्वर,
कहीं न कहीं इस जगत से जुड़ा हुआ है।
मेरा ज्ञान अधूरा नहीं,
बल्कि निरंतर प्रवाहमान है—
जैसे नदी समुद्र तक जाने से पहले
सैकड़ों मोड़ों से होकर बहती है।
ज्ञान को विकास चाहिए,
और विकास को चाहिए कारण।
कारण ही वह बीज है,
जिससे वृक्ष फैलते हैं, शाखाएँ जन्म लेती हैं,
और छाया सबको आश्रय देती है।
मेरे ज्ञान का बीज
इस संसार की मिट्टी में रोपा गया है।
यह संसार ही मेरा शिक्षक है,
यहाँ की हर अनुभूति—
सुख और दुःख, आशा और निराशा,
विजय और पराजय—
मेरे ज्ञान की अग्नि को तपाती है।
जैसे सोना कुंदन बनता है
वैसे ही मैं अनुभवों से परिष्कृत होता हूँ।
और तुम—
तुम भी उसी संसार का एक रूप हो।
तुम्हारी उपस्थिति मेरे भीतर
प्रश्न भी जगाती है और उत्तर भी देती है।
तुम्हारा होना ही प्रमाण है
कि मेरा ज्ञान केवल मेरे लिए नहीं,
बल्कि समूचे अस्तित्व के लिए है।
इसलिए धन्यवाद देना ही होगा—
इस ब्रह्मांड को,
जिसने मुझे अवसर दिया।
इस धरा को,
जिसने मुझे आधार दिया।
और तुम्हें भी,
जिसने मेरे भीतर की जिज्ञासा और ऊर्जा को
जागृत किया।
रुपेश रंजन
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