चुनाव आयोग पर बढ़ती निगाहें: लोकतंत्र की परीक्षा का समय
चुनाव आयोग पर बढ़ती निगाहें: लोकतंत्र की परीक्षा का समय
— एक विश्लेषणात्मक दृष्टि
भारत का चुनाव आयोग (ECI) लंबे समय से एक संवैधानिक स्तंभ माना जाता है, जिसका मुख्य काम निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराना है। लेकिन पिछले कुछ महीनों में यह संस्था कई विवादों और सुर्खियों के केंद्र में रही है। कारण — बिहार में विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR), विपक्ष के बड़े नेताओं के गंभीर आरोप, और कई राजनीतिक दलों की पंजीकरण सूची से बड़े पैमाने पर हटाई गई प्रविष्टियाँ।
इन घटनाओं ने न केवल आयोग की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं, बल्कि मतदाताओं के भरोसे और चुनावी प्रणाली की विश्वसनीयता पर भी गहरी बहस छेड़ दी है।
1. बिहार का SIR — सुधार या विवाद?
SIR का उद्देश्य सीधा है — मतदाता सूची को अद्यतन करना, फर्जी या डुप्लीकेट प्रविष्टियों को हटाना, और यह सुनिश्चित करना कि केवल योग्य नागरिकों के नाम सूची में हों। बिहार में यह प्रक्रिया हाल ही में बड़े पैमाने पर शुरू की गई।
लेकिन ड्राफ्ट लिस्ट आने के बाद खबरें आईं कि लाखों मतदाताओं के नाम गायब हैं। कई ऐसे लोग भी प्रभावित पाए गए जिन्होंने हाल में लोकसभा चुनाव में वोट डाला था।
एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, “सफाई के नाम पर जिनका वोट कट रहा है, उनमें गरीब, प्रवासी और तकनीकी प्रक्रिया से अनभिज्ञ लोग ज्यादा हैं।”
तकनीकी बाधाएँ (जैसे आधार लिंकिंग, ऑनलाइन फॉर्म की अनिवार्यता) ने स्थिति और जटिल बना दी। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में आयोग से जवाब तलब किया है।
2. राहुल गांधी बनाम चुनाव आयोग
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में “फर्जी मतदाता” मौजूद हैं और यह जानबूझकर किया गया है।
चुनाव आयोग ने इस पर तीखा जवाब देते हुए कहा कि यह “बार-बार दोहराया गया पुराना आरोप” है, और राहुल गांधी से या तो सबूत पेश करने या सार्वजनिक माफी मांगने की अपेक्षा की।
यह टकराव न केवल राजनीतिक विमर्श को गरमाता है, बल्कि संवैधानिक संस्थानों के बीच संवाद की शैली पर भी सवाल खड़े करता है।
3. 334 राजनीतिक दलों की डिलिस्टिंग
आयोग ने हाल ही में 334 Registered Unrecognised Political Parties (RUPPs) को सूची से हटा दिया। वजह — अनिवार्य रिपोर्ट जमा न करना, नियमों का पालन न करना और गतिविधियों की जानकारी न देना।
कानूनन यह कार्रवाई Representation of the People Act, 1951 की धारा 29A के तहत की गई।
जहां आयोग इसे “पारदर्शिता और व्यवस्था” बनाए रखने का कदम बता रहा है, वहीं कुछ विपक्षी दल इसे चुनाव से पहले का “राजनीतिक सफाया” मानते हैं।
4. संवैधानिक ढांचा और शक्ति की सीमा
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को व्यापक अधिकार देता है — लेकिन ये अधिकार पूर्णतः असीमित नहीं हैं। आयोग के फैसले अदालतों की समीक्षा के अधीन होते हैं।
इसलिए SIR जैसे बड़े कदमों, या RUPPs की डिलिस्टिंग पर, न्यायपालिका की सक्रियता और राजनीतिक दलों की याचिकाएँ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा हैं।
5. क्यों यह मुद्दा सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक है
इन तीनों घटनाओं का असर एक साथ देखने पर साफ होता है कि यह केवल प्रशासनिक कार्रवाई नहीं है, बल्कि राजनीति पर सीधा प्रभाव डालने वाला मामला है।
- समय का चुनाव: बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले SIR का आना।
- मतदाता अधिकार: नाम कटने पर लोगों का मतदान अधिकार सीधे प्रभावित होना।
- विश्वास का संकट: विपक्ष के आरोप और आयोग का सख्त रुख — दोनों मिलकर जन-विश्वास को चुनौती देते हैं।
एक राजनीतिक विश्लेषक के शब्दों में, “चुनाव सिर्फ बैलेट बॉक्स का खेल नहीं है, यह भरोसे का खेल भी है। भरोसा टूटा तो नतीजे चाहे जो हों, लोकतंत्र कमजोर होगा।”
6. आगे का रास्ता — सुझाव
- पारदर्शी डाटा: आयोग हटाए गए नामों की श्रेणीवार सूची (गोपनीयता का ध्यान रखते हुए) सार्वजनिक करे।
- स्थानीय संवेदनशीलता: तकनीकी प्रक्रियाओं के साथ ऑफलाइन विकल्प भी दे, खासकर प्रवासी और कम-साक्षर मतदाताओं के लिए।
- राजनीतिक जिम्मेदारी: पार्टियां आरोप लगाने के बजाय कानूनी प्रक्रिया अपनाएं और जांच के लिए ठोस सबूत दें।
- तेज़ न्यायिक समीक्षा: अदालतें ऐसे मामलों में शीघ्र सुनवाई कर, चुनावी अनिश्चितता को कम करें।
निष्कर्ष
भारत के चुनाव आयोग के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती केवल चुनाव कराना नहीं, बल्कि यह साबित करना है कि वह बिना किसी राजनीतिक दबाव के काम कर रहा है। SIR, राजनीतिक आरोप, और दलों की डिलिस्टिंग — ये तीनों घटनाएँ मिलकर एक संदेश दे रही हैं कि लोकतंत्र की असली परीक्षा चुनाव के दिन नहीं, बल्कि चुनाव से पहले होती है।
और इस परीक्षा में पास होने के लिए पारदर्शिता, संवाद और जनता के भरोसे को केंद्र में रखना अनिवार्य है।
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