“भेड़िए कौन हैं?” ?क्या हम भेड़िए हैं?
“भेड़िए कौन हैं?” ?क्या हम भेड़िए हैं?
हम तो पहले ही नंगे हैं,
बेशर्म,
भीड़ में छिपे हुए,
भीड़ से अलग नहीं—
बल्कि उसी का हिस्सा।
मौका देखते ही हमला कर देते हैं,
ट्रेन में,
बस में,
गली के अंधेरे मोड़ पर,
या फिर किसी कॉलेज के मासूम गलियारे में।
(प्रसंग – हाल ही का किस्सा)
पिछले दिनों,
एक इंजीनियरिंग कॉलेज की बच्ची…
जिसके सपनों में मशीनों की गूंज थी,
भविष्य की उजली चमक थी,
उस पर गिद्ध बनकर टूट पड़ा एक अधेड़—
जो उसी कॉलेज के मेस का रसोइया था।
उसकी सोच इतनी गिरी हुई थी
कि उसने अपने काम की गरिमा भुला दी,
और अपनी उम्र को भी शर्मसार कर दिया।
प्रश्न – क्या हम भेड़िए हैं?
तो क्या सच में,
हम छिपे हुए भेड़िए हैं?
जो घात लगाकर बैठे हैं,
और इंतज़ार करते हैं
किसी मासूम की असावधानी का?
नहीं—
हम इंसान कहे जाने लायक भी नहीं
अगर हमारे भीतर का पशु
इतनी बार जाग उठे।
समाज का आईना
कहते हैं—
कपड़े न होने से कोई नंगा नहीं होता,
पर सोच गंदी हो तो
सभ्यता के लाख परदे भी
चरमराकर गिर जाते हैं।
बच्ची को देखकर
जिसके मन में
पितृवत स्नेह आना चाहिए,
वहीं अगर लालसा उभरे,
तो समझ लो—
रोगी सिर्फ शरीर का नहीं,
मन और आत्मा का है।
प्रेरणा – बदलाव की ओर
लेकिन,
हर अंधेरे कोने में
सिर्फ भेड़िए नहीं हैं।
कुछ दीपक भी जलते हैं।
कुछ लोग खड़े होते हैं—
आवाज़ उठाने को,
अन्याय रोकने को,
और लड़कियों को यह बताने को कि
डरो मत—
तुम्हारा हर सपना पूरा होगा,
क्योंकि समाज को बदलना ही होगा।
उठो, सामना करो
लड़कियों से कहता हूँ—
चुप मत रहो।
तुम्हारी चुप्पी
भेड़ियों की भूख बढ़ाती है।
आवाज़ उठाओ,
कानून का सहारा लो,
और समाज को यह दिखा दो कि
तुम शिकार नहीं,
शक्ति हो।
और लड़कों से कहता हूँ—
अपनी नज़रों को पवित्र करो।
स्त्री को केवल शरीर नहीं,
सृष्टि समझो।
बहन, बेटी, माँ की तरह देखो।
तभी हम भेड़िए नहीं,
इंसान कहलाएँगे।
समाप्ति – नई सुबह
हम तो पहले ही नंगे हैं,
ये बात सच है।
पर हमें तय करना है—
नंगापन पतन का होगा
या सत्य का।
यदि हम भीतर की गंदगी उतार फेंकें,
तो शायद समाज नए कपड़े पहनेगा।
और वह बच्ची—
जिसे कॉलेज में रोका गया,
कल उसी आत्मविश्वास से
इंजीनियर बनेगी।
भेड़िए हारेंगे,
और इंसानियत जीतेगी।
♥️♥️
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