प्रकृति की आराधना — धार्मिक शास्त्रों से एक गहन दार्शनिक विश्लेषण
प्रकृति की आराधना — धार्मिक शास्त्रों से एक गहन दार्शनिक विश्लेषण
प्रकृति को सर्वशक्तिमान मानना हमारे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अनुभव का मूल है। हमारे प्राचीन शास्त्र न केवल प्रकृति की उपासना का वर्णन करते हैं, बल्कि उसे गरिमा, नैतिकता और जीवन का आधार मानकर उसके साथ सहअस्तित्व का सिद्धांत भी देते हैं। नीचे हम प्रमुख धर्मग्रंथों और परंपराओं से उद्धरणों/प्रतीकों को लेकर यह समझने की कोशिश करेंगे कि कैसे शास्त्रगत चेतना आज के पर्यावरण-संकट के लिए नैतिक और दार्शनिक आधार देती है।
वेदों में तत्व-पूजा और नियम (ṛta)
वेदों में सूर्य, अग्नि, वायु, पृथ्वी आदि को देवी-देवता के रूप में माना गया है — न सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से, बल्कि वास्तविक जीवन-संरचना के रूप में। ऋग्वेद के सूक्तों में अग्नि (अग्नि देव), इन्द्र, सूर्योदय और पृथ्वी की स्तुति दिखाई देती है। वेदों का व्यापक विचार 'ऋत' (ṛta) है — वह सार्वभौमिक क्रम और संतुलन जिसके अनुरक्षण के लिए यज्ञ, समर्पण और नियम (Ṛta रक्षक कर्मकाण्ड) आवश्यक समझे गए।
दार्शनिक अर्थ: वेद हमें बताते हैं कि प्रकृति केवल उपयोग की वस्तु नहीं—बल्कि एक संतुलित तंत्र है जिसका उल्लंघन मनुष्यता के लिए प्रतिकूल परिणाम लाता है। यज्ञ का मूल भाव भी लेना-देना है, धाराप्रवाह संतुलन बनाये रखने का व्यवहारिक संकेत देता है।
उपनिषदों का एकात्म दर्शन — “सभी में एक”
उपनिषदों के महावाक्य—जैसे “īśāvāsyam idam sarvam” (ईशोपनिषद् का आरंभिक विचार कि सर्वत्र ईश है) और “tat tvam asi” (चांडोग्य उपनिषद् का महावाक्य जो आत्मा और ब्रह्म के एकत्व को दर्शाता है)—यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा और समग्र सृष्टि में अलगाव नहीं।
दार्शनिक अर्थ: यदि आत्मा और ब्रह्म (आखिरी वास्तविकता) प्रकृति में व्याप्त है, तो प्रकृति की अवमानना स्वयं के अपमान के समकक्ष है। उपनिषद् का यह एकत्वबोध हमें प्रकृति के प्रति सहानुभूति और सम्मान का दार्शनिक कारण देता है — संरक्षण आत्म-संरक्षण बन जाता है।
भगवद् गीता: प्रकृति (prakṛti) और सृष्टि का स्रोत
भगवद् गीता में प्रकृति (prakṛti) और पुरुष (puruṣa) की विवेचना मिलती है—प्रकृति है वह शक्ति जो रूप-रंग और कर्मों का मैदान बनाती है, और पुरुष (आत्मिक चेतना) उसे जानने और सही रूप से प्रयोग करने का साधन है। कृष्ण स्वयं कहते हैं कि वह सर्वभूतों का स्रोत है (अर्थात् सृष्टि की प्रतिपत्ती उसी से हुई)। गीता का नैतिक संदेश—निष्काम कर्म (फल की इच्छा से परे कर्तव्य करना) और संयम—आधुनिक पर्यावरणीय आचरण के लिए अनुकूल सिद्धांत पेश करता है।
दार्शनिक अर्थ: प्रकृति का आदर सिर्फ श्रद्धा नहीं; कर्मविहितता और परम्परागत दायित्व का विषय है—हमारे कर्मों का परिणाम प्रकृति के स्वरूप को प्रभावित करता है, अतः विवेकपूर्ण कर्म और संतुलन अनिवार्य है।
पुराण, रामायण—लोककथाओं में प्रकृति की पवित्रता
पुराणों में पृथ्वी को देवी (भूमिका/भूदेवी) के रूप में देखा गया—एक प्रसिद्ध रूप है वराहावतार की कथा जहाँ विष्णु ने पृथ्वी को समुद्र से बाहर उठाया; इस कथा से पृथ्वी का पवित्र और संरक्षित किया जाना आवश्यक समझा जाता है। गंगा- उतरने की कथा (भगीरथ/गंगा) नदी के दैवीकरण और उसका पवित्र उपयोग—स्नान, जीवन-स्त्रोत—को रेखांकित करती है। रामायण में वनवास का अध्याय, जहाँ राम, सीता और लक्ष्मण वन-जीवन का आदरपूर्वक पालन करते हैं, बताता है कि धर्म का मार्ग प्रकृति के साथ संयमित सहवास की परीक्षा भी है।
दार्शनिक अर्थ: पुराणिक कथाएँ प्रकृति को केवल पृष्ठभूमि नहीं मानतीं—वे उसे अभिनायक, अनुरक्षक और धर्म-प्रदर्शक बनाती हैं। भूमि, नदियाँ और वन सामाजिक-आध्यात्मिक दायरे के भीतर पवित्रता और उत्तरदायित्व दोनों का संकेत हैं।
भक्ति-संतपरंपरा, जैन-बौद्ध-सिख दृष्टिकोण
भक्ति-संतों ने भी अक्सर रचना में ईश्वर-उपस्थिति को प्रकृति में देखा—किसी संत की दृष्टि में हर वृक्ष, नदी या पक्षी ईश्वर का स्वरूप हो सकता है।
जैन धर्म का अहिंसा-सिद्धांत (हिंसा न करने की नीति) प्रत्येक जंतु के प्रति करुणा का संदेश देता है—यह पर्यावरण-संरक्षण का नैतिक आधार है।
बौद्ध धर्म की परम्परा में 'परिनिर्वाण' या 'प्रतिच्यसमुत्पाद' (dependent origination — सब चीजें परस्पर निर्भर हैं) की अवधारणा हमें दिखाती है कि प्रत्येक कड़ी कमजोर होने पर पूरा जाल प्रभावित होता है।
सिख धर्म के उपदेश भी सर्जनहार की immanence (ईश्वर का सर्वव्यापक होना) पर जोर देते हैं—इससे स्पष्ट होता है कि रचना का अपमान आत्मिक दृष्टि से अस्वीकार्य है।
दार्शनिक अर्थ: विविध परंपराएँ अलग भाषा में यही संदेश देती हैं—प्रकृति का आदर नैतिक परहेज़, करुणा और परस्परनिर्भरता की समझ से जुड़ा है।
शास्त्रीय शिक्षाओं का आधुनिक पर्यावरणीय निहितार्थ
- साकार नैतिक आधार: शास्त्र प्रकृति के प्रति आदर को धार्मिक कर्तव्य बनाते हैं—यह पर्यावरण नीति का नैतिक आधार बन सकता है।
- सहअस्तित्व का सिद्धांत: उपनिषदों का एकात्म और बौद्ध-निर्भरता का सिद्धांत आधुनिक पारिस्थितिक सिद्धांतों से मेल खाता है—हर प्राणी और संसाधन आपस में जुड़े हैं।
- सनातन व्यवहारिक निर्देश: वेदों का ṛta और यज्ञ-धारणा बताती है कि संसाधनों का विनिमय संतुलन पर आधारित होना चाहिए — अतः सतत उपयोग, दायित्व और उत्तरदायित्व।
- अहिंसा और करुणा: जैन-बौद्ध-सांस्कृतिक सिद्धांत आज के जैव-नैतिक प्रश्नों (जैसे जैव-विविधता संरक्षण, दया आधारित कृषि) के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं।
व्यावहारिक प्रस्ताव (शास्त्रीय भावना से प्रेरित)
- भूमि-पूजन (भूमि पूजन) और नदी-पूजन के प्रतीकात्मक अनुष्ठान को संवैधानिक/आचार्य स्तर पर संरक्षण-कार्य में बदला जाए—जैसे वृक्षारोपण, नदी-स्वच्छता अभियान।
- अहिंसा-आधारित आचरण: दया, अपर्याप्त शोषण पर रोक और समन्वित कृषि-प्रथाएँ अपनाना।
- शिक्षा में शास्त्रीय नैतिकता का समावेश जिससे प्रकृति को धार्मिक-नैतिक कर्तव्य के रूप में देखा जाए, न कि सिर्फ भौतिक संसाधन के रूप में।
निष्कर्ष
हमारे धार्मिक ग्रंथों और परंपराओं में प्रकृति सिर्फ पूजा का विषय नहीं—बल्कि जीवन का मौलिक आधार और नैतिक-अनुशासन का स्रोत है। वेदों का ऋत, उपनिषदों का एकात्म, गीता का प्रकृति-पुरुष विवेक, पुराणों की भक्ति-कथाएँ और जैन-बौद्ध-सिख चेतना—ये सब मिलकर हमें एक स्पष्ट संदेश देती हैं: प्रकृति का सम्मान करना मानवता का प्रथम कर्तव्य है। आज, जब हमारी गतिविधियाँ इसी आधार को हिलाती दिखती हैं, तब शास्त्रीय शिक्षाएँ हमें न सिर्फ आध्यात्मिक प्रेरणा देती हैं बल्कि व्यवहारिक नीति और जीवनशैली के ठोस संकेत भी देती हैं।
अंत में एक छोटा-सा श्लोक-सा विचार (संक्षेप में):
प्रकृति में जो परम सत्य बसता है — उसे नमन करो;
जो तुम्हें जीवन देता है—उसका संरक्षण ही सच्ची भक्ति है।
♥️♥️
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