मन की क्रांति

मन की क्रांति

मैंने कहीं पढ़ा था,
“क्रांति कहीं भी हुई होगी,
पहले मन में हुई होगी।”

सोचता हूँ,
कितना सच है यह वाक्य,
कि हर बदलाव का पहला बीज
मन की ज़मीन पर ही बोया जाता है।

मन ही है जो सवाल उठाता है,
मन ही है जो उत्तर ढूँढता है,
मन ही है जो डरता है,
और मन ही है जो साहस रचता है।

बाहर की सड़कों पर
नारे और शोर गूँजते हैं,
पर असली आंदोलन तो
खामोशी में जन्म लेता है।

क्रांति तब शुरू होती है,
जब मैं अपने ही भ्रमों को तोड़ता हूँ,
अपने ही भय को पहचानता हूँ,
अपने ही झूठ से आँख मिलाता हूँ।

कितनी ज़रूरी है
मन का दरवाज़ा खोलना,
थोड़ी देर के लिए
खुद से बातें करना।

आसपास की छोटी-बड़ी उलझनों से परे
जब मैं ठहरकर सोचता हूँ,
तो पाता हूँ कि
सबसे बड़ा युद्ध
अपने भीतर ही लड़ा जाता है।

सही-गलत से परे,
अच्छा-बुरा से आगे,
तुम्हारा-मेरा से दूर,
एक जगह है—
जहाँ बस प्रश्न है—
"मैं आखिर चाहता क्या हूँ?"

क्रांति वहीं जन्म लेती है,
जहाँ यह प्रश्न पनपता है।

जब कोई आवाज़ कहती है—
बस अब और नहीं,
अब मुझे अपनी राह बनानी है,
अब मुझे अपने बंधन तोड़ने हैं।

जब मन यह तय करता है
कि डर से बड़ा है विश्वास,
और झूठ से गहरी है सच्चाई,
तभी असली आज़ादी का रास्ता
साफ़ होने लगता है।

यह क्रांति तलवारों से नहीं,
यह क्रांति शब्दों से नहीं,
यह क्रांति रक्त से नहीं—
यह क्रांति विचारों से होती है।

मन जब आज़ाद होता है,
तभी देह भी आज़ाद होती है।
मन जब टूटे बंधनों से निकलता है,
तभी समाज के बंधन भी ढहते हैं।

हर क्रांति का पहला कदम
खुद को पहचानना है।
हर आज़ादी की पहली सांस
अंदर की जंजीरों को तोड़ना है।

इसलिए मैंने माना है,
मेरे हिस्से की आज़ादी
अभी बाकी है—
क्योंकि मुझे अभी भी
अपने ही मन में
एक क्रांति करनी है।

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