धर्म और मानवता ...

यहाँ एक दार्शनिक संवाद प्रस्तुत है जिसमें दो पात्र—आचार्य (धर्म के पक्षधर) और शिष्य (मानवता के पक्षधर)—धर्म और मानवता के बीच के संबंध पर विचार करते हैं।


शिष्य: आचार्य, मेरा प्रश्न यह है कि जब हिंसा और अन्याय से समाज टूटता है, तो क्या हमें धर्म का सहारा लेना चाहिए या केवल मानवता को ही सर्वोपरि मानना चाहिए?

आचार्य: पुत्र, धर्म ही वह आधार है जिस पर मानवता टिकती है। धर्म के बिना करुणा, न्याय और मर्यादा टिक नहीं सकती। धर्म मार्गदर्शन करता है कि सही क्या है, गलत क्या है।

शिष्य: किंतु आचार्य, धर्म के नाम पर भी तो बहुत हिंसा हुई है। इतिहास साक्षी है कि कभी-कभी धर्म की व्याख्या ही युद्ध का कारण बनी। तब क्या धर्म मानवता से बड़ा कहा जा सकता है?

आचार्य: तुम्हारा तर्क सही है। पर ध्यान दो—वह हिंसा धर्म की नहीं, अधर्म की देन थी। धर्म का मूल तो अहिंसा, सत्य और कल्याण है। जब मनुष्य स्वार्थवश धर्म को तोड़-मरोड़ देता है, तभी हिंसा जन्म लेती है।

शिष्य: फिर भी, यदि कोई व्यक्ति बिना धर्म का नाम लिए, केवल मानवता के आधार पर करुणा और न्याय करता है, तो क्या वह धर्म से वंचित है?

आचार्य: नहीं। वास्तव में वही तो धर्म है। धर्म का बाहरी रूप बदल सकता है, पर उसका सार मानवता ही है। अंतर बस इतना है कि धर्म उस मानवता को शाश्वत नियम और मर्यादा से जोड़ देता है, ताकि वह केवल भावना न रहकर व्यवहार बन जाए।

शिष्य: तो क्या यह कहा जा सकता है कि धर्म और मानवता विरोधी नहीं, बल्कि एक ही सत्य की दो अभिव्यक्तियाँ हैं?

आचार्य: बिल्कुल। जब धर्म से मानवता अलग हो जाए तो वह जड़ और कट्टर हो जाता है, और जब मानवता से धर्म अलग हो जाए तो वह दिशाहीन हो जाती है। धर्म मानवता को दिशा देता है, और मानवता धर्म को जीवन।

शिष्य: तब हिंसा का समाधान भी धर्म-मानवता के संगम में ही है?

आचार्य: हाँ। धर्म का सही स्वरूप और मानवता की करुणा मिलकर ही हिंसा का अंत कर सकते हैं। न धर्म अकेला पर्याप्त है, न मानवता अकेली। दोनों मिलकर ही पूर्णता लाते हैं।


👉 निष्कर्ष: धर्म और मानवता विरोधी नहीं हैं। धर्म का सार ही मानवता है, और मानवता का स्थायी आधार धर्म है।


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