एक आत्मा (अनन्त सत्य) और दूसरा मन (क्षणिक अहं)— आपस में वार्तालाप कर रहे...

एक आत्मा (अनन्त सत्य) और दूसरा मन (क्षणिक अहं)— आपस में वार्तालाप कर रहे... 


मन:

 यदि तुम्हें समाप्त कर दूँ,
तो शायद यह संघर्ष भी समाप्त हो जाए।

आत्मा:
मुझसे तुम्हारा संघर्ष ही तुम्हारे भीतर है।
मेरा अंत करने से कुछ नहीं बदलेगा—
क्योंकि जो लौ मुझमें है,
वह तुम्हारे भीतर भी धधक रही है।

मन:
क्या मैं उसे दबा नहीं सकता?
क्या उसे जड़ से मिटा नहीं सकता?

आत्मा:
तुम दबा सकते हो,
पर नाश नहीं कर सकते।
वह बार-बार लौटेगी,
नये रूप में, नये आवरण में।
हर बार तुम्हें वही चुनौती देकर खड़ी होगी।

मन:
तो फिर यह जो घृणा है,
यह जो मेरे भीतर का बोझ है,
उसका स्रोत कहाँ है?

आत्मा:
यह किसी बाहर का नहीं।
यह यहीं की उपज है।
तुम्हारे और मेरे ही कर्मों की परछाईं है।
तुम जिस पर उंगली उठाते हो,
उसका बीज तुम्हारे भीतर ही अंकुरित हुआ है।

मन:
और तुम्हारे विचार?
तुम्हारा धर्म?
तुम्हारा स्वरूप?

आत्मा:
सब इसी मिट्टी से बने हैं—
जैसे तुम।
हम अलग नहीं हैं।
हम एक ही धारा के दो मोड़ हैं।

मन:
तो क्या मेरे जाने से यह प्रवाह थमेगा?
या तुम्हारे रहने से इसका कोई अंत होगा?

आत्मा:
नहीं।
यह प्रवाह शाश्वत है।
न वह तुम्हारे नाश से रुक सकता है,
न मेरे बने रहने से समाप्त होगा।
वह केवल रूप बदलता है,
और नये वस्त्र पहनकर सामने आता है।

मन:
तो अस्तित्व क्या है?

आत्मा:
अस्तित्व नाश से परे है।
वह केवल रूपांतरित होता है,
और हर बार
नये चोले में पुनः जन्म लेता है।


रुपेश रंजन

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