ज़िंदगी और न्याय का प्रश्न
ज़िंदगी और न्याय का प्रश्न
कौन जाने किसे किस दर्द से गुजरना पड़ा,
कौन जाने किसे किस बोझ को उठाना पड़ा।
चेहरों पर तो हँसी की नक़ाब सजती है,
पर भीतर आत्मा अक्सर कराहती है।
कुछ लोग हारे बिना भी हार मान लेते हैं,
कुछ जीतकर भी अपने घाव छुपा लेते हैं।
कुछ ने वो सजाएँ झेली हैं
जिनके लिए कोई अपराध किया ही नहीं,
फिर भी दुनिया ने उन्हें
दोष का नाम दिया है।
तो हम किसे ग़लत कहें,
किसे सच्चा ठहराएँ?
जब हर आत्मा अपने-अपने
भाग्य के न्यायालय में
अदृश्य मुक़दमा लड़ रही है।
न्याय यहाँ हमेशा तराज़ू से नहीं तौला जाता,
कभी वह आँसुओं से नापा जाता है,
कभी मौन की लंबाई से,
कभी अधूरी नींद की गहराई से।
इस जीवन का सबसे कठिन प्रश्न यही है—
क्या सचमुच कोई पूर्णतः निर्दोष है?
क्या कोई ऐसा है जिसने
कभी किसी को आहत न किया हो?
या फिर क्या कोई ऐसा है
जो पूर्ण अपराधी हो?
नहीं — हर आत्मा
कुछ प्रकाश और कुछ अंधकार का संगम है।
दुनिया के इस रंगमंच पर
हर कोई अपनी भूमिका निभाता है।
कोई खलनायक बनता है,
तो कोई नायक।
पर सच यह है—
दोनों भूमिकाएँ
कभी न कभी
एक ही आत्मा निभाती है।
इसलिए जीवन हमें सिखाता है—
न जल्दी दोषारोपण करो,
न जल्दी प्रशंसा।
क्योंकि कल वही
जिसे तुम दोषी कहते हो,
किसी और की मुक्ति का कारण बन सकता है।
ज़िंदगी आसान नहीं,
यहाँ हर मोड़ पर संघर्ष है।
कभी तुम्हारा मौन
तुम्हारे खिलाफ़ साक्ष्य बन जाता है,
कभी तुम्हारा सत्य
झूठ की भीड़ में दब जाता है।
फिर भी इंसान चलता रहता है,
क्योंकि उसके पास
आशा का वह दीपक है
जो आँधियों में भी बुझता नहीं।
असल न्याय
किसी अदालत में नहीं मिलता,
वह आत्मा के भीतर
धीरे-धीरे अंकित होता है।
कभी पीड़ा के रूप में,
कभी क्षमा के रूप में।
जीवन हमें यही सिखाता है—
किसी पर अंतिम निर्णय मत दो,
किसी को अंतिम सत्य मत मानो।
हर प्राणी अपनी यात्रा में
अपूर्ण है, अधूरा है,
पर उसी अधूरेपन में
उसका सौंदर्य है।
तो चलो, न किसी को दोष दें,
न किसी पर आक्षेप करें।
बस समझें कि यह जीवन
न्याय और अन्याय के बीच
एक अनंत साधना है—
जहाँ हर आत्मा
अपने कर्मों और अनुभवों के साथ
धीरे-धीरे पूर्णता की ओर बढ़ रही है।
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