मैं नहीं समझ पाऊँगा महादेवी का दर्द...
मैं नहीं समझ पाऊँगा महादेवी का दर्द
(रूपेश रंजन)
मैं नहीं समझ पाऊँगा
महादेवी का दर्द —
वह दर्द
जो नीरजा के नयन में
सिर्फ़ मौन रह गया,
जो दीपशिखा के प्रकाश में
रातों के अंधकार को जलाता रहा।
उसकी कलम
एक यात्री थी —
कभी बनारस की गलियों में,
कभी प्रयाग की मिट्टी में,
कभी हिमालय की गहराई में
करुणा का मधुर गीत गाती।
वह अकेली नहीं थी,
वह युग की आत्मा थी;
एक स्त्री होकर भी
सैकड़ों स्त्रियों की आवाज़ बनी,
वह हर बंधन के पार जाकर
मुक्ति के बीज बोती रही।
उसके गीत
मधुकर के पंखों-से थे —
नाज़ुक, पर अदृश्य शक्ति से भरे।
उनमें विरह भी था,
करुणा भी,
और मनुष्य को जगाने वाला
सूक्ष्म प्रतिकार भी।
महादेवी की कविता
वह स्थान थी
जहाँ दुख शरण पाता था,
जहाँ हर आत्मा
अपनी थकान उतारकर
शब्दों के स्नान में धुल जाती थी।
उसके कक्ष में
एक मूक संसार बसता था —
अनाथ बच्चे, घायल पक्षी,
टूटे हुए सपने,
और वे सब
जिन्हें समाज ने भुला दिया था।
वह उनके लिए
माँ भी बनी,
संगी भी,
आश्वासन भी।
मैं नहीं समझ पाऊँगा
वह मौन साहस
जो उसने अपने जीवन में जिया,
मैं नहीं समझ पाऊँगा
उसकी वह दृढ़ता
जो कविता को पूजा बना देती थी।
फिर भी
मैं शब्दों में उसे पकड़ने की कोशिश करता हूँ —
गंगा की तरह
उसकी करुणा बह रही है,
वन की तरह
उसकी गहराई है,
दीपक की तरह
उसकी स्मृति उजली है।
महादेवी,
तुम्हारी स्मृति में
यह कविता मेरा प्रणाम है —
एक छोटा-सा दीप,
जिसकी लौ
तुम्हारी दीपशिखा से ही
प्रकाश पाती है।
तुम्हारे नीरव वनों में
तुम्हारे मधुकर गीतों में
तुम्हारे यात्री पथ में
तुम्हारी करुणा अब भी
जग को सिंचित कर रही है।
तुम्हारे बिना
हमारा साहित्य अधूरा है,
तुम्हारी उपस्थिति
हर शब्द में
हर संवेदना में
अब भी जीवित है।
हे महादेवी —
तुम्हारी विरासत
हमारे हृदयों में है,
हमारे स्वरों में है,
और हमारी चेतना में
तुम्हारी करुणा की चिर अग्नि
जगमगा रही है।
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