क्यों नहीं सीता ने राम को छोड़ दिया
क्यों नहीं सीता ने राम को छोड़ दिया
जंगल की नीरवता में,
चाँदनी से धुली धरती पर,
सीता बैठी है अकेली
अपने ही सवालों के घेरे में।
उसके चारों ओर हवा की फुसफुसाहट,
पेड़ों के बीच बँधी हिचकियाँ,
और मन के भीतर एक तूफ़ान
जो किसी से कहे नहीं कह पाता।
राम — नाम ही नहीं, एक मर्यादा,
एक शिखर, एक छवि,
जिसे समाज ने पूज लिया
पर जिसके साये में सीता की सांसें घुटीं।
सीता सोचती है —
क्या प्रेम सिर्फ़ एक परीक्षा है?
क्या नारी की निष्ठा
बस अग्नि से ही सिद्ध होती है?
उसने अग्नि में चलकर भी दिखाया,
पर सवाल ख़त्म नहीं हुए,
हर प्रश्न राम के होंठों पर नहीं
पर समाज की आँखों में ज़रूर थे।
क्यों वह अग्नि परीक्षा के बाद भी
निर्दोष साबित न हो सकी?
क्यों उसकी आँखों की नमी
किसी ने नहीं पढ़ी?
क्यों नहीं सीता ने राम को छोड़ दिया?
क्यों नहीं उसने कहा —
अब बस!
अब मेरे जीवन की डोर
मैं खुद थामूंगी।
पर सीता थी धरती की बेटी,
उसके भीतर मिट्टी का धैर्य था,
आँखों में करुणा
और ओस सा पिघलता आत्मबल।
वह जानती थी —
नारी का निर्णय केवल उसका नहीं,
पूरे युग की आशाओं का बोझ है
उसके काँधे पर।
राम उसके लिए देवता थे
पर इंसान भी;
और इंसान की मर्यादा
देवत्व की दीवारों से कम ऊँची नहीं होती।
वह राम के विरुद्ध नहीं
समाज के विरुद्ध थी,
पर समाज की सजा
उसने अकेले ही सही।
रात्रि की नीरवता में उसने
धरती से प्रश्न किया —
“माँ! क्यों मेरा अस्तित्व
हमेशा किसी और की कसौटी पर तौला जाता है?”
धरती चुप थी
पर उसकी चुप्पी में एक गूँज थी —
“बेटी, तू अपने भीतर
एक क्रांति है।”
सीता ने सोचा —
राम के पास सत्ता है, सिंहासन है,
पर उसके पास
धरती की गोद है।
वह चाहती तो कह सकती थी —
“राम! तुम्हारी मर्यादा तुम्हें मुबारक,
मेरी मर्यादा मैं खुद गढ़ूँगी।”
पर उसने नहीं कहा,
क्योंकि उसका मौन भी
एक घोषणापत्र था,
जो युगों तक बोलेगा।
उसका मौन, उसका तप,
उसकी सहनशीलता
आने वाली स्त्रियों की शक्ति बनेगी,
यह उसे भीतर से पता था।
वह चाहती थी
कि उसके घाव फूल बनें,
उसका दर्द मशाल बने,
उसकी चुप्पी शंखनाद बने।
क्यों नहीं सीता ने राम को छोड़ दिया —
यह प्रश्न आज भी जलता है,
पर सीता के भीतर
उसका उत्तर ठहरा है।
क्योंकि छोड़ना आसान है
पर बदलना कठिन,
क्योंकि अलग होना सरल है
पर इतिहास में बदलाव लिखना कठिन।
सीता ने त्याग नहीं,
संदेश चुना;
विद्रोह नहीं,
सत्य की आग चुनी।
उसकी आँखें भले भीगी रहीं
पर मन का आकाश विस्तृत हुआ,
उसके आँसुओं ने
नई चेतना के बीज बो दिए।
वह जानती थी
एक दिन आएगा
जब स्त्रियाँ सवाल करेंगी
और अपने उत्तर भी गढ़ेंगी।
सीता ने अपने दुख को
शक्ति का रूप दिया,
अपनी थकान को
युगों की सीख बनाया।
उसकी पीड़ा, उसका तप
वेदों से बड़ा ग्रंथ है,
जिसमें लिखा है —
नारी केवल सहनशील नहीं,
असीम सृजनशील भी है।
राम ने राज्य बचाया,
सीता ने आत्मा बचाई;
राम ने इतिहास लिखा,
सीता ने अंतरात्मा जगाई।
जैसे-जैसे युग बदले,
सीता के आँसू
विद्रोह के बीज बने।
हर स्त्री में उसकी प्रतिध्वनि जागी।
आज भी कोई पूछता है —
क्यों नहीं सीता ने राम को छोड़ दिया?
पर शायद उसने
एक बड़े अर्थ में
राम को छोड़ ही दिया था।
धरती की गोद में समाकर
उसने घोषणा कर दी —
अब मेरे जीवन का निर्णय
मेरे हाथ में है।
वह चली गई पर
उसकी गूँज रह गई;
वह मौन रही पर
उसका संदेश गूंजता रहा।
क्योंकि सीता ने केवल पति नहीं,
एक युग की सोच को चुनौती दी थी,
क्योंकि उसने सिखाया —
नारी अपनी आत्मा की अधिपति है।
उसका तप, उसकी विदग्धता
आज की हर स्त्री में है,
उसका प्रश्न
हर नई पीढ़ी में गूंजता है।
सीता की आँखों में वह शून्य था
जो केवल शून्य नहीं,
असंख्य संभावनाओं का
बीज था।
आज भी
जब कोई स्त्री अपने हक़ के लिए
आवाज़ उठाती है,
वहाँ सीता की आत्मा
मुस्कराती है।
वह कहती है —
मैंने तब रास्ता नहीं तोड़ा,
ताकि तुम आज नया रास्ता बना सको।
क्यों नहीं सीता ने राम को छोड़ दिया —
क्योंकि वह सिर्फ़ एक स्त्री नहीं,
एक युग की अंतरात्मा थी।
और उसकी अंतरात्मा
आज भी हमें पुकारती है —
सवाल करो, जागो,
और अपने निर्णय खुद करो।
सीता का जीवन
दर्द से भरा था
पर उस दर्द ने
हमें सत्य का आईना दिखाया।
उसकी मौन क्रांति
आज भी गूँजती है
हर घर, हर मन,
हर कहानी में।
इसलिए
क्यों नहीं सीता ने राम को छोड़ दिया —
यह केवल इतिहास नहीं
हमारी आत्मा का प्रश्न है।
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