यह कैसा विश्व शांति दिवस? – एक गहन विचार

यह कैसा विश्व शांति दिवस? – एक गहन विचार

प्रस्तावना

हर साल 21 सितंबर को दुनिया भर में ‘अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस’ मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र ने 1981 में यह घोषणा की थी कि कम से कम एक दिन के लिए दुनिया युद्ध, आतंकवाद और हिंसा से विराम लेकर शांति की ओर बढ़े। उद्देश्य यह था कि लोग, देश और सरकारें युद्ध की जगह संवाद और सहयोग को प्राथमिकता दें। लेकिन 21वीं सदी में आते-आते यह सपना और भी दूर जाता दिखाई दे रहा है।




शांति दिवस का उद्देश्य

शांति दिवस का विचार बहुत सुंदर है – कम से कम एक दिन तो ऐसा हो जब न बंदूक चले, न बम गिरे और न ही निर्दोष लोग आतंक के शिकार हों। यह एक अवसर है याद करने का कि बिना शांति के विकास, सहयोग, और मानवीय मूल्य संभव नहीं हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हम वास्तव में इस दिन के उद्देश्य को आत्मसात कर पाए हैं?




युद्ध और आतंक की हकीकत

आज दुनिया के कई हिस्सों में युद्ध और हिंसा जारी है।

रूस-यूक्रेन युद्ध को दो साल से ज्यादा हो चुके हैं।

ग़ाज़ा और इज़राइल में हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं।

अफ्रीका और एशिया के कुछ देशों में आतंकी गतिविधियाँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं।


इन हालात में शांति दिवस एक औपचारिक आयोजन बनकर रह गया है, जबकि वास्तविक शांति दूर होती जा रही है।




क्यों नहीं रुक रही हिंसा

1. भू-राजनीतिक स्वार्थ – बड़े देश अपने हितों के लिए छोटे देशों में युद्ध को हवा देते हैं।


2. धर्म और जातीय विभाजन – समाज में पनपती कट्टरता हिंसा को जन्म देती है।


3. आर्थिक हित – हथियारों का कारोबार और सैन्य गठजोड़ शांति की राह में बाधक हैं।


4. सूचना युद्ध – सोशल मीडिया और झूठी ख़बरें नफरत को बढ़ावा देती हैं।





शांति दिवस की उपयोगिता

फिर भी इस दिन का महत्व इसलिए है क्योंकि यह हमें याद दिलाता है कि शांति कोई ‘लक्ज़री’ नहीं बल्कि ‘जरूरत’ है। शांति के बिना विकास नहीं हो सकता। यह दिन हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हमारे बच्चों का भविष्य कैसा होगा – डर और बमों के साये में या भरोसे और सद्भाव के वातावरण में।




भारत और विश्व शांति

भारत ने हमेशा “वसुधैव कुटुंबकम्” और “अहिंसा परमो धर्मः” जैसे सिद्धांतों को बढ़ावा दिया है। महात्मा गांधी, बुद्ध और अन्य संतों ने दुनिया को शांति का रास्ता दिखाया। लेकिन आज भारत भी सीमा पार आतंकवाद और पड़ोसी देशों की अस्थिरता से प्रभावित है। ऐसे में भारत को भी अपनी विदेश नीति में शांति और विकास के संतुलन को साधना होगा।




आम नागरिक की भूमिका

शांति सिर्फ सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है। आम नागरिक भी अपनी सोच और आचरण से बड़ा बदलाव ला सकते हैं।

नफरत और अफवाहों से बचना

संवाद और सहयोग को बढ़ावा देना

शिक्षा, सहिष्णुता और संवेदनशीलता को बढ़ाना

सोशल मीडिया पर जिम्मेदारी से लिखना और पढ़ना





शिक्षा और युवा

अगर आने वाली पीढ़ी को शांति का महत्व सिखाया जाए तो भविष्य बदला जा सकता है। स्कूलों और कॉलेजों में “पीस एजुकेशन” (Peace Education) को बढ़ावा देना होगा। युवाओं को यह समझाना होगा कि युद्ध कभी समाधान नहीं होता।




निष्कर्ष

विश्व शांति दिवस हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि सिर्फ औपचारिक घोषणाओं और भाषणों से शांति नहीं आती। जब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक इच्छाशक्ति, आर्थिक न्याय और सांस्कृतिक संवेदनशीलता नहीं होगी, तब तक यह दिन केवल कैलेंडर की तारीख बनकर रह जाएगा।

हम सबको मिलकर यह तय करना होगा कि यह दिन केवल प्रतीकात्मक न रहे, बल्कि वास्तविक परिवर्तन का माध्यम बने। तभी हम कह पाएंगे कि विश्व शांति दिवस का अर्थ सच में सफल हुआ।

Comments

Post a Comment