अमेरिका और युद्ध के दोहरे मापदण्ड – एक गहन विश्लेषण

अमेरिका और युद्ध के दोहरे मापदण्ड – एक गहन विश्लेषण

प्रस्तावना

दुनिया में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में अमेरिका अपनी छवि बनाता है। वह हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर शांति, स्वतंत्रता और मानवीय मूल्यों की बात करता है। लेकिन जब बात युद्ध, सैन्य हस्तक्षेप या हथियारों के व्यापार की आती है तो अमेरिका का व्यवहार अक्सर उलटा दिखाई देता है। इस लेख में हम इसी दोहरे मापदण्ड को विस्तार से समझेंगे।




इतिहास से सीख

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने खुद को “विश्व शांति के प्रहरी” के रूप में प्रस्तुत किया। संयुक्त राष्ट्र, नाटो और विभिन्न सुरक्षा समझौतों में उसकी बड़ी भूमिका रही। लेकिन इसी दौर में कोरिया युद्ध, वियतनाम युद्ध, इराक और अफ़ग़ानिस्तान जैसे युद्धों में अमेरिका ने खुलकर भाग लिया। शीतयुद्ध के दौरान उसने कई देशों में सैन्य तख्तापलटों और गुप्त अभियानों को समर्थन दिया।




शांति की भाषा – युद्ध की तैयारी

अमेरिका एक ओर तो “लोकतंत्र और शांति” का समर्थन करता है, दूसरी ओर अपने रक्षा बजट को लगातार बढ़ाता है। वह दुनिया का सबसे बड़ा हथियार उत्पादक और निर्यातक है। हथियार बेचने वाले उद्योग और लॉबी उसका राजनीतिक आधार बन गए हैं। सवाल उठता है कि जब हथियारों से मुनाफ़ा हो रहा हो तो सच्ची शांति की उम्मीद कैसे की जाए?




पश्चिम एशिया और तेल की राजनीति

पश्चिम एशिया के संघर्षों में अमेरिका की भूमिका सबसे अधिक विवादास्पद रही है।

ईरान, इराक, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया जैसे देशों में उसकी नीतियां बदलती रहीं।

कभी वह किसी शासन को समर्थन देता है, तो कभी वही शासन “तानाशाह” कहलाने लगता है।

इराक युद्ध (2003) इसका बड़ा उदाहरण है, जहां हथियारों के झूठे बहाने पर हमला किया गया।




मानवाधिकार बनाम सामरिक हित

जब अमेरिका को किसी देश से रणनीतिक लाभ मिलता है तो वह वहां मानवाधिकार उल्लंघन पर चुप रहता है। लेकिन जहां उसका हित नहीं होता वहां वह लोकतंत्र और मानवाधिकारों के नाम पर प्रतिबंध और दबाव बनाता है। यह दोहरा रवैया अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में अविश्वास और असंतुलन पैदा करता है।



रूस–यूक्रेन युद्ध का मामला

रूस–यूक्रेन संघर्ष में भी अमेरिका का रुख स्पष्ट दिखता है। वह यूक्रेन को भारी हथियार और वित्तीय सहायता देता है, लेकिन शांति वार्ता के ठोस प्रयास नहीं करता। इस तरह युद्ध लंबा खिंचता है और हथियार कंपनियों को मुनाफ़ा मिलता है।




वैश्विक दक्षिण का दृष्टिकोण

एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों को लगता है कि अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय कानून और संप्रभुता के प्रति सम्मान “चुनिंदा” है। वह अपने सहयोगियों के अपराधों पर चुप रहता है, जबकि विरोधियों को तुरंत निशाना बनाता है। यही कारण है कि कई देशों ने अब वैकल्पिक शक्तिकेंद्रों (जैसे ब्रिक्स) की ओर रुख करना शुरू किया है।




मीडिया और जनमत का प्रभाव

अमेरिकी मीडिया अक्सर “मानवीय हस्तक्षेप” या “लोकतंत्र स्थापित करने” जैसी भाषा में युद्धों को जायज़ ठहराता है। हॉलीवुड, समाचार चैनल और सोशल मीडिया कैंपेन एक ऐसा माहौल बनाते हैं जिससे अमेरिकी जनता को लगता है कि उनका युद्ध “न्यायपूर्ण” है। यह सॉफ्ट पावर रणनीति भी दोहरे मापदण्ड का हिस्सा है।




दुनिया के लिए संदेश

अमेरिका को यह समझना होगा कि उसकी नीतियां केवल सैन्य शक्ति से नहीं, बल्कि नैतिक बल से भी तय हों। यदि वह सचमुच विश्व नेतृत्व करना चाहता है तो उसे अपने दोहरे मापदण्ड छोड़कर एक पारदर्शी, न्यायपूर्ण और बहुपक्षीय दृष्टिकोण अपनाना होगा।




निष्कर्ष

अमेरिका की विदेश नीति हमें यह सिखाती है कि शांति और युद्ध दोनों ही सत्ता, संसाधन और रणनीति के खेल का हिस्सा बन गए हैं। केवल भाषणों और घोषणाओं से शांति नहीं आएगी। दुनिया को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो हथियारों से अधिक संवाद पर विश्वास करे, और जो अपने ही सिद्धांतों पर अडिग रहे। तभी वैश्विक स्तर पर संतुलन और स्थिरता संभव होगी।

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