किस-किस को याद करूँ...

किस-किस को याद करूँ,

सब तो गुज़र गए।

याद तो आते हैं,

पर खोखलेपन में,

मानो एक बंद कुएँ सा,

जहाँ यादें टकरा-टकरा कर

दम तोड़ देती हैं,

पर बाहर नहीं आ पातीं।


सब हैं...

पर अपनी-अपनी दुनियाओं में,

मेरी दुनिया से बहुत दूर।

कैसे समझाऊँ उन्हें—

प्यार किया जाता है,

प्यार आँका नहीं जाता।

शायद एक दिन वो भी समझेंगे,

कि मैं भी उनसे प्रेम ही करता था।


मगर मेरा प्रेम सीमित न था—

दुनिया की सरहदों में सिमटा नहीं,

बल्कि अनंत आकाश के

अंतिम छोर तक फैला हुआ।

एक ऐसा प्रेम,

जो प्रेमियों के समाप्त हो जाने के बाद भी

सदा विद्यमान रहेगा...


रूपेश रंजन

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