दुर्गा सप्तशती : शक्ति, भक्ति और जीवन दर्शन का अमृत स्रोत
दुर्गा सप्तशती : शक्ति, भक्ति और जीवन दर्शन का अमृत स्रोत
भारतीय संस्कृति का हृदय यदि देखा जाए, तो उसमें देवी उपासना का गहन और अलौकिक स्थान है। वेदों में ‘देवी सूक्त’ से लेकर उपनिषदों में वर्णित ‘शक्ति तत्व’ और पुराणों में देवी महिमा का विस्तार, सब एक ही सत्य की ओर इंगित करते हैं – यह सम्पूर्ण सृष्टि शक्ति के बिना निस्तेज है।
इसी शक्ति की दिव्य गाथा को अद्भुत काव्यात्मक रूप प्रदान करने वाला ग्रंथ है – “दुर्गा सप्तशती”, जिसे चंडी पाठ अथवा देवी माहात्म्य के नाम से भी जाना जाता है।
दुर्गा सप्तशती का उद्गम और संरचना
यह ग्रंथ मार्कण्डेय पुराण का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंश है। सात सौ श्लोकों से युक्त होने के कारण इसे ‘सप्तशती’ कहा गया। इसकी रचना का स्वरूप ऐसा है कि साधक केवल श्लोकों का पाठ ही न करे, बल्कि उसके भावों में डूबकर आत्मशक्ति को जागृत करे।
सप्तशती तीन खंडों में विभाजित है –
1. प्रथम चरित्र (मध्यमायाम्भिका खंड) – महिषासुर वध की कथा।
2. मध्यम चरित्र – चण्ड-मुण्ड, रक्तबीज और शुम्भ-निशुम्भ का संहार।
3. उत्तर चरित्र – देवी का स्तवन, ब्रह्मा-विष्णु-महेश द्वारा उनकी महिमा का वर्णन और साधना का फल।
देवी की कथा और प्रतीकात्मकता
सप्तशती की कथाएँ केवल पौराणिक घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि गहन दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रकट करती हैं।
महिषासुर – अहंकार और अज्ञान का प्रतीक।
चण्ड और मुण्ड – क्रोध और लोभ की शक्ति।
रक्तबीज – वह नकारात्मकता जो बार-बार जन्म लेती है और बढ़ती जाती है।
शुम्भ और निशुम्भ – दम्भ और ईर्ष्या के स्वरूप।
जब देवी इन दैत्यों का वध करती हैं, तो इसका आशय यह है कि साधक भी अपने भीतर के इन दुर्गुणों का विनाश करे और आत्मिक विजय प्राप्त करे।
आध्यात्मिक दृष्टि से महत्व
1. आत्मबल की साधना – सप्तशती का पाठ व्यक्ति को निर्भीक बनाता है, उसे भीतर से स्थिर और सशक्त करता है।
2. भक्ति और शक्ति का संगम – यह ग्रंथ केवल भय निवारण का उपाय नहीं है, बल्कि यह दिखाता है कि श्रद्धा के साथ शक्ति का प्रयोग ही धर्म की रक्षा कर सकता है।
3. सृष्टि का संतुलन – देवी केवल संहार नहीं करतीं, वे सृजन, पालन और करुणा की भी मूर्ति हैं।
नवरात्र और सप्तशती
नवरात्र के नौ दिनों में दुर्गा सप्तशती का पाठ अत्यंत फलदायी माना जाता है। साधक सुबह-शाम इसे पढ़ते हुए देवी के नौ रूपों की आराधना करता है। ऐसा विश्वास है कि सप्तशती का प्रत्येक श्लोक एक मंत्र की तरह है, जो जीवन से भय, रोग और अशुभता को दूर कर देता है।
साहित्यिक और सांस्कृतिक छटा
दुर्गा सप्तशती केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि संस्कृत साहित्य की भी अनुपम निधि है। इसके श्लोकों में काव्य सौंदर्य, लय और भाव की अद्भुत समरसता है। “या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता” जैसे मंत्र आज भी जन-जन की वाणी में जीवित हैं।
सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो देवी की कथा ने लोककला, नृत्य, संगीत और नाट्य परंपरा को भी गहराई से प्रभावित किया है। छऊ नृत्य से लेकर दुर्गा पूजा तक, हर जगह इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
आधुनिक युग में प्रासंगिकता
आज का समय भले ही तकनीकी और भौतिक सुख-सुविधाओं का युग हो, परन्तु मनुष्य के भीतर तनाव, असुरक्षा और भय भी उतना ही गहरा है।
जब व्यक्ति अहंकार से भर जाता है, तो उसके जीवन में महिषासुर जीवित हो उठता है।
जब वह लोभ और क्रोध में डूब जाता है, तो चण्ड-मुण्ड प्रकट हो जाते हैं।
जब नकारात्मक विचार बार-बार जन्म लेते हैं, तो वह रक्तबीज का रूप है।
ऐसे समय में दुर्गा सप्तशती साधक को यह सिखाती है कि – अपने भीतर की देवी शक्ति को जागृत करो, तभी जीवन के दैत्यों पर विजय पा सकते हो।
निष्कर्ष : जीवन का शाश्वत संदेश
दुर्गा सप्तशती एक धार्मिक ग्रंथ मात्र नहीं है। यह जीवन का दार्शनिक मार्गदर्शन है। यह बताती है कि –
धर्म और न्याय की रक्षा के लिए साहस आवश्यक है।
करुणा और शक्ति का संतुलन ही जीवन को सफल बनाता है।
नारी शक्ति केवल सृष्टि का आधार ही नहीं, बल्कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का भी प्रतीक है।
अतः, जब भी हम सप्तशती का पाठ करते हैं, तो यह केवल देवी से वरदान मांगना नहीं होता, बल्कि स्वयं को यह स्मरण कराना होता है कि –
“हमारे भीतर भी वही शक्ति विद्यमान है, जो संसार के समस्त अंधकार को मिटाकर प्रकाश ला सकती है।”
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