उठो राजन, निभाओ धर्म...

उठो राजन, निभाओ धर्म

आँगन में अग्नि प्रचण्ड जली,
हवाओं में धूल, धुआँ ढली।
भाई का घर जब राख बना,
क्यों राजन, तुम मौन तना?

माना कि वह अब सयाना है,
अपने दुख का अफ़साना है।
पर अग्नि न आयु देख सके,
न सीमा, न बन्धन रेख सके।

रक्त का नाता गहरा है,
संकट में हाथ ही सहरा है।
मौन धारण कर शांति नहीं,
यह अपराध है, भ्रांति नहीं।

इतिहास गवाही देता है,
जो राजा मौन रह लेता है।
उसकी गद्दी कलंक बने,
उसका ताज धूल संग जले।

धर्म न केवल पूजा-पाठ,
धर्म है संकट में साथ।
राजा का व्रत यही कहे,
भाई का दुःख न कोई सहे।

आग जब पड़ोस में धधके,
राजन क्यों खिड़की को सटके?
आज यदि तुम चुप रह जाओ,
कल स्वयं अंगार बन जाओ।

राख उड़ाकर आएगी यहाँ,
धुआँ घुटन फैलाएगा यहाँ।
चीखें गूँजेंगी तुम्हारे द्वार,
कुंठा बन जाएगी भार।

करुणा ही राजसत्ता है,
कर्तव्य ही समता है।
धर्म वही जो हाथ बढ़ाए,
शक्ति वही जो दुःख मिटाए।

कायरता को मौन न दो,
उठो, जग में जयघोष करो।
शौर्य तभी पहचाना है,
जब आँसू भी मिट जाना है।

आज समय की पुकार सुनो,
इतिहास की हुंकार सुनो।
धरती का मर्म तुम्हें बुलाए,
भाई का दुःख तुम्हें जगाए।

राजन, उठो, विजय गान करो,
सत्य का ध्वज ऊँचा मान करो।
तमाशा देखनेवाले नहीं,
कर्तव्य निभानेवाले सही।

यदि आज धर्म निभाओगे,
तो यश अमर कहलाओगे।
यदि आज भी सोए रहे,
तो युग-युग अपमान सहे।

उठो, नयन में ज्वाला भरो,
वाणी में वज्र की धारा करो।
हृदय में धर्म का दीप जलाओ,
अग्नि को भस्म बनाओ।

वरना मुकुट धूल हो जाएगा,
सिंहासन कलंक खा जाएगा।
नाम तुम्हारा इब़्रत बनेगा,
इतिहास तिरस्कार कहेगा।

उठो ऐ राजन, उठो अभी,
धरती माँ की यही सबद ग़री।
भाई का घर मत जलने दो,
अपने धर्म को विफल न हो।

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