गांधी का भारत आगमन (1915): एक नेता का जागरण



गांधी का भारत आगमन (1915): एक नेता का जागरण

प्रस्तावना

जब मोहनदास करमचंद गांधी 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत की भूमि पर उतरे, तो दृश्य साधारण था — परन्तु इतिहास के लिए वह क्षण असाधारण। बीस वर्षों तक दक्षिण अफ्रीका में अन्याय और रंगभेद के विरुद्ध सत्याग्रह का शस्त्र चलाने वाला यह व्यक्ति अब अपने देश लौट रहा था — न सत्ता के लोभ से, न धन के आकर्षण से, बल्कि सत्य, अनुशासन और नैतिकता के बल पर।
भारत की स्वतंत्रता-यात्रा अब केवल राजनीतिक संघर्ष न रहकर एक नैतिक क्रांति बनने जा रही थी।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1915 तक भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आर्थिक और सामाजिक शोषण की चरम स्थिति में था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना को तीन दशक बीत चुके थे, परन्तु उसका प्रभाव शिक्षित वर्ग तक सीमित था। किसान, मजदूर और निम्नवर्ग इस आंदोलन से दूर थे। अंग्रेज़ी शासन की नीतियों ने गरीबी, बेरोज़गारी और असमानता को गहरा दिया था। ऐसे में गांधी का आगमन परिवर्तन की नयी आशा लेकर आया।

दक्षिण अफ्रीका में बिताए गए 21 वर्षों ने गांधी को एक डरे-सहमे वकील से अन्याय के विरुद्ध अडिग योद्धा बना दिया था। वहाँ उन्होंने सत्याग्रह के माध्यम से नस्लीय भेदभाव के खिलाफ भारतीय समुदाय को संगठित किया। यह केवल उनकी सफलता नहीं थी, बल्कि आत्मबल और नैतिक दृढ़ता का अभ्यास भी था। जब वे भारत लौटे, तो वे केवल एक राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक सुधारक बन चुके थे।


गांधी के निरीक्षण और प्रारंभिक कदम

भारत लौटकर गांधी ने किसी आंदोलन की घोषणा नहीं की। उन्होंने मौन और निरीक्षण को प्राथमिकता दी। लगभग एक वर्ष तक वे देश भर में यात्रा करते रहे — बंगाल से गुजरात तक, मद्रास से पंजाब तक।
उन्होंने किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों और सामान्य नागरिकों से मुलाकात की। जो कुछ उन्होंने देखा, उसने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया — गरीबी, अशिक्षा, अस्पृश्यता और सामाजिक विभाजन। उन्हें समझ में आया कि भारत की असली गुलामी ब्रिटिश कानूनों से नहीं, बल्कि नैतिक पतन और सामाजिक असमानता से उपजी है।

इस दौरान उन्होंने उस युग के प्रमुख नेताओं — गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि से मुलाकात की। विशेष रूप से गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे राजनीति में सक्रिय होने से पहले एक वर्ष भारत का अध्ययन करें। गांधी ने इस सलाह का ईमानदारी से पालन किया।

अहमदाबाद में उन्होंने सत्याग्रह आश्रम (बाद में साबरमती आश्रम) की स्थापना की — जो उनके आदर्शों का प्रयोगशाला बना। यहाँ वे और उनके अनुयायी सत्य, सादगी, श्रम, स्वावलंबन और समानता का अभ्यास करते थे। खादी कातना, हाथ से श्रम करना, जातिगत भेदभाव का त्याग — ये सब उस जीवनशैली के अंग बने जिसने आने वाले स्वतंत्रता संग्राम को नैतिक दिशा दी।


भारतीय राजनीति का कायापलट

गांधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश पहले किसी नेता जैसा नहीं था। उन्होंने तीन क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए —

  1. नैतिक राजनीति — सत्य (Satya) और अहिंसा (Ahimsa) को राजनीतिक संघर्ष की नींव बनाना।
  2. जन-सहभागिता — स्वतंत्रता केवल नेताओं की नहीं, बल्कि किसान, मजदूर और प्रत्येक नागरिक की साझा आकांक्षा होना।
  3. रचनात्मक कार्य — स्वतंत्रता का अर्थ केवल विदेशी सत्ता से मुक्ति नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, सामाजिक सुधार और आर्थिक आत्मनिर्भरता होना।

उन्होंने राजनीति की भाषा ही बदल दी। “स्वराज” शब्द को नया अर्थ मिला — यह केवल शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने का नहीं, बल्कि स्व-अनुशासन और स्व-नियंत्रण का प्रतीक बन गया।
गांधी ने सिखाया कि असली आज़ादी बाहर से नहीं, भीतर से शुरू होती है।


एक नैतिक शक्ति का उदय

भारत आगमन के बाद गांधी के पहले अभियानों — चंपारण सत्याग्रह (1917) और खेड़ा सत्याग्रह (1918) — ने उनके एक वर्ष के निरीक्षण की सार्थकता सिद्ध की।
उनकी संघर्ष की पद्धति — उपवास, सत्याग्रह, संवाद और शांत प्रतिरोध — विश्व राजनीति में अभूतपूर्व थी।
उनका खादी का वस्त्र, उनका लाठी थामे चलना, और उनका संयमित व्यक्तित्व एक नैतिक शक्ति का प्रतीक बन गया।

गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम को एक आध्यात्मिक आंदोलन का स्वरूप दिया।
पहली बार भारत के गाँव-गाँव के लोग अपने आपको इस महान यज्ञ का भागीदार महसूस करने लगे।
स्वतंत्रता अब केवल पढ़े-लिखे नेताओं का सपना नहीं रही, यह हर घर की आस्था बन गई।


दार्शनिक अंतर्दृष्टि

गांधी का भारत लौटना वस्तुतः राजनीति में आध्यात्मिकता के प्रयोग की शुरुआत थी।
वे मानते थे कि स्वराज का अर्थ सत्ता प्राप्ति नहीं, बल्कि आत्मसंयम और नैतिकता की प्राप्ति है।
उनके शब्दों में —

“वास्तविक स्वराज तब आएगा जब हर व्यक्ति यह क्षमता प्राप्त कर लेगा कि वह अन्यायपूर्ण सत्ता का विरोध कर सके।”

उनका नेतृत्व आदेश देने वाला नहीं, बल्कि प्रेरणा देने वाला था।
उन्होंने अपने जीवन से सिखाया कि नैतिक उदाहरण किसी भी पद या शक्ति से अधिक प्रभावशाली होता है।
उनका आश्रम जीवन समानता, सेवा और शरीर-मन-आत्मा की एकता का प्रतीक था।


सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव

गांधी का आगमन भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के काल से भी मेल खाता था।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उन्हें “महात्मा” की उपाधि दी — एक ऐसा सम्मान जिसे गांधी स्वयं स्वीकारने में संकोच करते रहे।
भारतीय और विदेशी प्रेस उनके जीवन-प्रयोगों पर ध्यान देने लगी।
उनकी सादगी, उपवास, स्वदेशी वस्त्र, और संयमित जीवनशैली ने लोगों को आकर्षित किया।

उन्होंने स्वदेशी आंदोलन को नयी ऊर्जा दी — भारतीय वस्त्रों और उत्पादों के उपयोग, स्थानीय उद्योगों के प्रोत्साहन, और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के माध्यम से।
उनके लिए चरखा केवल आर्थिक साधन नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और श्रम की गरिमा का प्रतीक था।


उनके आगमन की विरासत

1919 तक, गांधी भारत के नैतिक नेतृत्व के प्रतीक बन चुके थे।
सिर्फ चार वर्षों में उनका प्रभाव धर्म, जाति और क्षेत्र की सीमाएँ लाँघ चुका था।
1915 में बोए गए बीज आगे चलकर असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, और भारत छोड़ो आंदोलन के वृक्ष बने।

उनका भारत आगमन वस्तुतः भारत का जागरण था — वह क्षण जब स्वतंत्रता आंदोलन को आत्मा प्राप्त हुई।


निष्कर्ष

1915 में गांधी का भारत लौटना केवल एक व्यक्ति का आगमन नहीं था — यह एक नैतिक दृष्टि का अवतरण था।
उन्होंने राजनीति को धर्म का कार्य बना दिया और स्वतंत्रता को आत्मशुद्धि का प्रतीक।
सबसे गरीब के बीच रहकर, साधारण वस्त्र पहनकर, और सादगी से बोलकर उन्होंने नेतृत्व का अर्थ बदल दिया।

दक्षिण अफ्रीका से भारत तक उनकी यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि मानवता की आत्म-खोज की यात्रा थी।
वह वह क्षण था जब सत्य ने एक राष्ट्र के हृदय में अपना घर पाया।



Comments