असहयोग आंदोलन (1920–22): जब राष्ट्र ने आत्मबल पहचाना
असहयोग आंदोलन (1920–22): जब राष्ट्र ने आत्मबल पहचाना
प्रस्तावना
सन् 1920 में भारत के स्वतंत्रता संग्राम ने एक निर्णायक मोड़ लिया।
चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद के सफल अभियानों ने गांधीजी को जनता का नेता बना दिया था।
अब वे केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक सिद्धांत, एक प्रेरणा बन चुके थे।
इसी दौर में आरंभ हुआ असहयोग आंदोलन — एक ऐसा जनआंदोलन जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी और भारतीयों को यह सिखाया कि शक्ति तलवार में नहीं, सत्य और आत्मबल में निहित होती है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्रथम विश्व युद्ध (1914–18) के बाद भारत की स्थिति अत्यंत दयनीय थी।
अंग्रेज़ों ने युद्ध में भारतीय संसाधनों और सैनिकों का भरपूर उपयोग किया, लेकिन बदले में वादों के अनुसार स्वशासन नहीं दिया।
उलटे, उन्होंने रॉलेट एक्ट (1919) लागू किया — एक ऐसा कानून जो बिना मुकदमे के गिरफ्तारी की अनुमति देता था।
इस अन्याय के विरुद्ध देशभर में विरोध हुआ, और उसी दौरान जालियांवाला बाग हत्याकांड ने पूरे राष्ट्र के अंतःकरण को झकझोर दिया।
हजारों निर्दोषों की हत्या ने गांधीजी को यह विश्वास दिलाया कि ब्रिटिश शासन की नैतिकता मर चुकी है।
उन्हें लगा कि भारत अब अंग्रेज़ी सत्ता के सहयोग से नहीं, बल्कि उसके असहयोग से ही स्वतंत्र हो सकता है।
यहीं से जन्म हुआ — असहयोग आंदोलन का।
गांधी का सिद्धांत: असहयोग एक नैतिक हथियार
गांधीजी ने घोषणा की कि जब कोई सत्ता अन्यायपूर्ण हो जाती है, तब उसके साथ सहयोग करना भी अधर्म होता है।
उन्होंने कहा —
“हम अंग्रेज़ों से घृणा नहीं करते, पर उनके अन्याय में सहभागी नहीं बनेंगे।”
उनके अनुसार असहयोग का अर्थ विद्रोह नहीं था; यह एक नैतिक घोषणा थी —
एक आत्मिक बगावत, जो प्रेम और सत्य के आधार पर की जाए।
उन्होंने स्पष्ट किया कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और हर भारतीय को अपनी आत्मा की आवाज़ सुननी होगी।
असहयोग आंदोलन की रूपरेखा
1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन को आधिकारिक स्वीकृति मिली।
इस आंदोलन के अंतर्गत गांधीजी ने जनता से निम्नलिखित कदम उठाने का आह्वान किया —
- सरकारी विद्यालयों और कॉलेजों का बहिष्कार।
- विदेशी वस्त्रों और वस्तुओं का बहिष्कार।
- सरकारी नौकरी, अदालत और पदों से त्यागपत्र।
- विदेशी उपाधियों का परित्याग।
- स्वदेशी वस्त्रों का उपयोग और खादी का प्रचार।
- स्थानीय निकायों और पंचायतों का स्वशासन।
गांधीजी ने कहा —
“यदि हम अपना सहयोग वापस ले लें, तो साम्राज्य स्वतः ढह जाएगा।”
जन-आंदोलन का रूप
इस आंदोलन ने देश के हर कोने को आंदोलित कर दिया।
किसान, मजदूर, विद्यार्थी, महिलाएँ — सभी ने इसमें भाग लिया।
विद्यार्थियों ने सरकारी विद्यालय छोड़कर राष्ट्रीय विद्यालयों में प्रवेश लिया।
वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया — जिनमें मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास और राजेंद्र प्रसाद जैसे बड़े नाम शामिल थे।
महिलाएँ घर-घर जाकर विदेशी कपड़ों की होली जलाने लगीं और खादी कातना राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन गया।
गांवों में चरखा एक क्रांति का चिह्न बन गया।
लोग मानने लगे कि स्वतंत्रता केवल दिल्ली या लंदन की राजनीति से नहीं, बल्कि हर घर की चूल्हे से शुरू होती है।
गांधीजी का संदेश सरल था —
“स्वराज चरखे में है, स्वराज आत्मबल में है।”
खादी और स्वदेशी का पुनर्जागरण
असहयोग आंदोलन के दौरान खादी केवल वस्त्र नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बन गया।
गांधीजी ने इसे स्वावलंबन का शस्त्र कहा।
चरखा चलाना एक आध्यात्मिक साधना बन गया — जो व्यक्ति चरखा चलाता, वह देश के प्रति एक मौन प्रतिज्ञा लेता कि वह किसी विदेशी वस्त्र को नहीं अपनाएगा।
गांधीजी ने लिखा —
“चरखा हमारी आत्मा का प्रतीक है; जब तक हम अपने हाथों से श्रम नहीं करेंगे, तब तक स्वराज केवल स्वप्न रहेगा।”
इस सरल प्रतीक ने करोड़ों भारतीयों को जोड़ा और सामाजिक समानता की भावना को प्रबल किया।
सरकार की प्रतिक्रिया और दमन
अंग्रेज़ी सरकार इस शांत परंतु शक्तिशाली आंदोलन से भयभीत हो उठी।
हजारों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया, प्रेस पर नियंत्रण लगाया गया, सभाओं पर रोक लगी।
लेकिन जनता का आत्मविश्वास पहले से कहीं अधिक मजबूत था।
गांधीजी ने अपने अनुयायियों से धैर्य और अनुशासन बनाए रखने का आग्रह किया।
हालाँकि 1922 में चौरी-चौरा घटना ने आंदोलन की दिशा बदल दी।
उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा गाँव में भीड़ ने उग्र होकर पुलिस थाने को आग लगा दी, जिससे कई पुलिसकर्मी मारे गए।
गांधीजी ने इसे अहिंसा के सिद्धांत का उल्लंघन माना और पूरे देश को चौंकाते हुए आंदोलन को स्थगित कर दिया।
यह निर्णय बहुतों को निराश कर गया, पर गांधी के लिए अहिंसा का सिद्धांत स्वतंत्रता से भी बड़ा था।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि
असहयोग आंदोलन केवल राजनीतिक रणनीति नहीं था — यह आत्मिक शुद्धि का अभियान था।
गांधीजी ने कहा —
“असहयोग का अर्थ है — अपने भीतर से भय और निर्भरता का त्याग।”
उनके लिए असली संघर्ष ब्रिटिशों से नहीं, भारतीय मनोवृत्ति से था — जो सदियों की गुलामी से जकड़ी हुई थी।
उन्होंने सिखाया कि स्वराज का मार्ग भीतर से शुरू होता है — जब व्यक्ति अपने भीतर के “अंग्रेज़” यानी लोभ, भय और हिंसा को त्याग देता है।
गांधीजी ने असहयोग को आत्मसंयम की साधना माना, जहाँ प्रत्येक भारतीय स्वयं को सत्य का साधक समझे।
सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव
इस आंदोलन ने भारतीय समाज में गहरी एकता और आत्मविश्वास पैदा किया।
हिंदू-मुस्लिम एकता ने नया रूप लिया, स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में आगे आईं, और गाँवों में रचनात्मक कार्यों की परंपरा शुरू हुई।
खादी, स्वदेशी, ग्रामशिक्षा, स्वच्छता, आत्मनिर्भरता — ये सब गांधी के आंदोलन के स्थायी स्तंभ बने।
यह आंदोलन भारत के सामाजिक ताने-बाने में नैतिकता और आत्मसम्मान की चेतना भर गया।
लोगों को एहसास हुआ कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक अधिकार नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार है।
निष्कर्ष
असहयोग आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा बन गया।
यह वह क्षण था जब एक राष्ट्र ने अपने भीतर की शक्ति को पहचाना —
कि तलवार से नहीं, सत्य और आत्मबल से साम्राज्य को झुकाया जा सकता है।
गांधीजी ने साबित किया कि असहयोग किसी विरोध की भाषा नहीं, बल्कि मानवता की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है।
उन्होंने स्वतंत्रता को एक नैतिक और आध्यात्मिक अनुष्ठान बना दिया — जहाँ हर नागरिक स्वयं एक तपस्वी था।
1922 में आंदोलन का अंत हुआ, पर उसकी ज्वाला बुझी नहीं —
वह चुपचाप भारत की आत्मा में समा गई, और वहीं से आगे आने वाले नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन की लौ जलती रही।
Comments
Post a Comment