गांधी–इरविन समझौता और गोलमेज सम्मेलन (1931): संवाद के माध्यम से संघर्ष की राह

गांधी–इरविन समझौता और गोलमेज सम्मेलन (1931): संवाद के माध्यम से संघर्ष की राह


भूमिका


1930 का नमक सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का ऐसा नैतिक विस्फोट था जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला दिया। परंतु गांधीजी का उद्देश्य केवल विद्रोह नहीं था — वे संघर्ष के बीच भी संवाद का रास्ता ढूंढते थे। 1931 में जब ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी को वार्ता के लिए आमंत्रित किया, तब यह इतिहास के सबसे अनोखे राजनीतिक संवादों में से एक बना।

“गांधी–इरविन समझौता” केवल एक काग़ज़ी अनुबंध नहीं था; यह अहिंसा और सत्ता के बीच की पहली औपचारिक बातचीत थी — जहाँ तलवार नहीं, नैतिकता बोल रही थी।




ऐतिहासिक पृष्ठभूमि


नमक सत्याग्रह के बाद ब्रिटिश सरकार के लिए स्थिति असहनीय हो गई थी। लाखों लोगों की गिरफ्तारी, निरंतर विरोध, और अंतरराष्ट्रीय दबाव ने शासन की साख को कमजोर कर दिया था।

इसी बीच 1930 के लंदन गोलमेज सम्मेलन में भारतीय कांग्रेस की अनुपस्थिति ने उसे अधूरा बना दिया था। ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि दूसरा सम्मेलन अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण हो, और इसके लिए गांधीजी का सम्मिलित होना आवश्यक था।


इसी उद्देश्य से तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने गांधीजी के साथ वार्ता की इच्छा व्यक्त की।

गांधीजी, जो जनवरी 1931 में यरवदा जेल में बंद थे, रिहा किए गए ताकि संवाद का रास्ता खुले।




गांधी–इरविन वार्ता: अहिंसा का कूटनीतिक आयाम


वार्ता फरवरी 1931 में प्रारंभ हुई और कई चरणों में चली।

गांधीजी ने साफ कहा कि वे किसी राजनीतिक सौदेबाजी में नहीं, बल्कि सत्य के आधार पर समझौता चाहते हैं।

उनकी मुख्य माँगें थीं —


1. सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई,



2. सरकारी दमन की समाप्ति,



3. नमक बनाने की स्वतंत्रता,



4. शांतिपूर्ण सभाओं और प्रेस की स्वतंत्रता।




लॉर्ड इरविन, जो गांधीजी की नैतिक आभा से प्रभावित थे, कई बिंदुओं पर सहमत हुए।

5 मार्च 1931 को “गांधी–इरविन समझौता” पर हस्ताक्षर हुए।


इस समझौते के प्रमुख बिंदु थे —


सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई (सिवाय उन मामलों के जिनमें हिंसा शामिल थी)।


कांग्रेस को आगामी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने की अनुमति।


जनता को समुद्र तट पर नमक बनाने की स्वतंत्रता।


ब्रिटिश सरकार द्वारा दमनात्मक नीति में शिथिलता।



इसके बदले गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन अस्थायी रूप से स्थगित करने की घोषणा की।




जनता और नेतृत्व की प्रतिक्रिया


इस समझौते ने भारत में मिश्रित प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कीं।

कई लोगों ने इसे “अहिंसा की जीत” कहा, जबकि कुछ ने इसे “अधूरी क्रांति” बताया।

जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं ने स्वीकार किया कि यह एक “रणनीतिक विश्राम” है, परंतु अंत नहीं।


जनता में आशा थी कि अब ब्रिटिश सरकार भारतीयों के अधिकारों को मान्यता देगी।

गांधीजी का यह कथन उस समय बहुत चर्चित हुआ —


> “मैं हथियार नहीं, विश्वास लेकर लंदन जा रहा हूँ।”






लंदन गोलमेज सम्मेलन (1931)


सितंबर 1931 में गांधीजी एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस की ओर से लंदन रवाना हुए।

उनका साधारण पहनावा — खादी की धोती, चप्पल, और चादर — वहाँ की औपनिवेशिक भव्यता के बीच नैतिकता का प्रतीक बन गया।

ब्रिटिश अखबारों ने लिखा — “A half-naked fakir has come to shake the Empire.”


गोलमेज सम्मेलन का उद्देश्य था — भारत के लिए संवैधानिक सुधारों का निर्धारण।

परंतु वहाँ का माहौल राजनीतिक रूप से जटिल था।

विभिन्न भारतीय समुदायों — मुस्लिम लीग, दलित प्रतिनिधि (डॉ. अम्बेडकर), सिख, राजाओं — के मतभेदों के कारण एक सर्वसम्मत निर्णय असंभव हो गया।


गांधीजी ने वहाँ भारत की पूर्ण स्वतंत्रता और एकता की वकालत की, किंतु ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक अलगाव की नीति (Communal Award) का संकेत देकर वार्ता को जटिल बना दिया।




दार्शनिक दृष्टि और गांधीजी का दृष्टिकोण


गांधीजी के लिए यह सम्मेलन केवल राजनीतिक मंच नहीं था, बल्कि सत्य और अहिंसा की परीक्षा थी।

वे ब्रिटिश शासकों को विरोधी नहीं, बल्कि “भ्रमित मित्र” मानते थे।

उनका उद्देश्य टकराव नहीं, बल्कि मन परिवर्तन था।


उन्होंने कहा —


 “मैं भारत की स्वतंत्रता की माँग इसलिए नहीं करता कि हम अंग्रेजों से घृणा करते हैं, बल्कि इसलिए कि हम स्वयं को प्रेम के योग्य बनाना चाहते हैं।”




यह दृष्टि उस युग की राजनीति में अद्वितीय थी — जहाँ शक्ति का नहीं, बल्कि सत्य का संवाद हो रहा था।




सम्मेलन के परिणाम और सीमाएँ


लंदन सम्मेलन गांधीजी की नैतिक विजय तो था, परंतु व्यावहारिक रूप से निष्फल रहा।

ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की एकता के बजाय विभाजन पर ध्यान केंद्रित किया।

फिर भी, इस सम्मेलन ने विश्व को यह संदेश दिया कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन केवल राजनैतिक संघर्ष नहीं, बल्कि आध्यात्मिक क्रांति है।


गांधीजी लौटे तो निराश नहीं, बल्कि और अधिक दृढ़ थे। उन्होंने कहा —


“मैंने समुद्र देखा, पर सत्य का सागर अब भी मेरे भीतर उमड़ रहा है।”






गांधी–इरविन समझौते का दीर्घकालिक प्रभाव


1. इस समझौते ने अहिंसा को कूटनीति का औजार बना दिया।



2. ब्रिटिश जनता के बीच गांधीजी के प्रति सम्मान और सहानुभूति बढ़ी।



3. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्वतंत्रता का नैतिक आधार मजबूत हुआ।



4. भारत में भविष्य के आंदोलनों — सविनय अवज्ञा का दूसरा चरण (1932) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) — के लिए भूमि तैयार हुई।




गांधीजी ने यह सिद्ध किया कि संवाद भी संघर्ष का प्रभावी रूप हो सकता है, यदि उसमें सत्य और नैतिकता हो।




निष्कर्ष


गांधी–इरविन समझौता और 1931 का गोलमेज सम्मेलन भारतीय स्वतंत्रता यात्रा के निर्णायक पड़ाव थे।

भले ही यह राजनीतिक दृष्टि से निर्णायक परिणाम न दे सका, किंतु इसने संघर्ष को नैतिक संवाद का स्वरूप प्रदान किया।


गांधीजी ने दिखाया कि सच्ची शक्ति बंदूक या तलवार में नहीं, बल्कि सत्य और आत्मसंयम में है।

उनकी यह यात्रा — जेल से लेकर लंदन की संसद तक — भारत के नैतिक आत्मविश्वास की घोषणा थी।


और यही इस अध्याय का सार है —

जब सत्य सिंहासन के सामने खड़ा होता है, तो इतिहास झुक जाता है।




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