मैं सुबह साढ़े चार बजे उठता था...

 मैं सुबह साढ़े चार बजे उठता था,

पाँच बजे निकल पड़ता था।

पाँच बजकर तीस मिनट पर

मेरी ट्रेन होती थी।

कई बार उसी ट्रेन में सो भी जाता था।


शहर पहुँचकर

काम में डूब जाना होता था,

और फिर शाम को लौट आना पड़ता था।

कभी-कभी लौट न पाता—

क्योंकि काम पूरा नहीं होता था।

एक बड़ा लक्ष्य पाना था मुझे।


पर इस सफ़र में मैं अकेला था—

सुबह भी,

शाम भी।

यही खलता है सबसे अधिक—

न कोई विदा करने वाला,

न घर लौटने पर कोई प्रतीक्षा करने वाला।


सचमुच,

इंसान कितना अकेला होता है

अपने संघर्षों में—

बिलकुल अकेला।


हाँ, संघर्ष के बाद शायद कोई मिले,

जिसे हमारे होने या न होने से

फ़र्क पड़ता हो।

पर इस सफ़र में

एक सत्य समझ आ जाता है—

यह दुनिया हमारे इर्द-गिर्द ही घूमती है,

हम पर ही निर्भर करती है।


इसलिए,

किसी का होना या न होना,

हमारे अपने होने से

ज़्यादा महत्वपूर्ण कभी नहीं हो सकता।


रूपेश रंजन

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