"गांधी और बँटवारा"
"गांधी और बँटवारा"
(एक देश की करुण कथा)
वो अगस्त की रात थी,
जब आज़ादी ने कदम रखे,
पर धरती रो पड़ी थी,
उसकी छाती पर लकीरें खिंच गई थीं।
हर गली में तिरंगा लहरा रहा था,
पर किसी के आँसू थम नहीं रहे थे,
किसी का घर छूटा था,
किसी का वतन जल रहा था।
और उसी अंधेरे के बीच,
एक बूढ़ा फकीर चल रहा था,
हाथ में लाठी, होठों पर प्रार्थना,
दिल में भारत का दर्द लिए।
वो गांधी था —
जिसने दुनिया को अहिंसा सिखाई,
पर अब उसकी आँखों के सामने
उसका देश खून में नहा रहा था।
वो कहता था —
"धर्म मनुष्य का आभूषण है, हथियार नहीं,"
पर धर्म अब दीवार बन गया था,
जहाँ दिलों के पुल ढह चुके थे।
कहीं जलते थे मंदिर,
कहीं जलती थीं मस्जिदें,
कहीं बहनें बेघर हो रही थीं,
कहीं माँएँ अपने बेटे खोज रही थीं।
और गांधी पूछता था —
“क्या यही है स्वराज?”
“क्या यही थी मेरी तपस्या का फल?”
वो चलता गया —
नोआखाली की कीचड़ भरी गलियों में,
कलकत्ता की जलती गलियों में,
दिल्ली के घावों में मरहम बनकर।
वो नहीं थका,
वो नहीं टूटा,
पर उसकी आत्मा रोज़ रोती थी।
कहता था —
“मैं हिंदू हूँ, मुसलमान भी,
मैं सिख हूँ, ईसाई भी,
मैं भारत हूँ —
मुझे मत बाँटो, मुझे मत तोड़ो।”
पर कोई नहीं सुन रहा था,
राजनीति सत्ता के गालिचे बिछा रही थी,
आदर्श अब किताबों में रह गए थे,
धरती पर सियासत का खेल चल रहा था।
लोग कहते थे —
“बापू, अब बहुत हुआ,
देश बाँटना ही पड़ेगा।”
और बापू का दिल काँप गया।
वो बोला —
“अगर तुम भारत बाँटोगे,
तो मेरा शरीर बाँट दो,
मेरा हृदय नहीं बाँट सकता।”
पर इतिहास को उसकी आवाज़ सुनाई नहीं दी।
जब 15 अगस्त की सुबह हुई,
देश आज़ाद था,
पर बापू मौन था।
कहीं न नारे, न भाषण,
बस एक दीया,
जो बापू ने जला रखा था,
उनके लिए जो जल गए थे।
कहते हैं,
उस दिन गांधीजी ने कहा था —
“आज मैं खुशी से नहीं,
दर्द से काँप रहा हूँ।
भारत माँ आज़ाद है,
पर उसके दोनों हाथ कट गए हैं।”
बँटवारे की रेलें चल रही थीं,
शवों से भरी हुई,
राख और आँसू से लदी हुई।
किसी डिब्बे में कराची छूटा,
किसी में लाहौर,
किसी में अयोध्या की यादें,
किसी में मुल्तान की मिट्टी।
हर स्टेशन पर बिखरी इंसानियत,
हर प्लेटफॉर्म पर टूटा विश्वास।
धर्म के नाम पर,
मानवता का वध हो रहा था।
और गांधी फिर भी कह रहा था —
“घृणा से कोई धर्म नहीं बनता,
प्रेम ही सच्चा ईश्वर है।”
पर प्रेम उस दिन हार गया था,
नफ़रत ने ताज पहन लिया था,
राजनीति ने सत्य को दफ़न कर दिया था।
कांग्रेस हॉल में उत्सव था,
मुस्लिम लीग में जश्न था,
पर गांधी की झोपड़ी में
केवल सन्नाटा था।
वो उपवास पर था,
अपने ही देश की आत्मा को बचाने के लिए,
कहता था —
“अगर भारत को बचाना है,
तो अपने भीतर के दंगे बुझाओ।”
फिर जनवरी आई,
ठंडी सुबह,
जहाँ प्रार्थना में जाते बापू
तीन गोलियों से गिर पड़े।
"हे राम!"
वो अंतिम शब्द थे —
और मानो भारत की आत्मा
उसके साथ गिर गई थी।
पर गांधी मरे नहीं,
वे हर बार जीवित होते हैं
जब कोई विभाजन के विरुद्ध खड़ा होता है,
जब कोई कहता है —
“मैं हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं,
मैं इंसान हूँ।”
आज भी वह फकीर जीवित है,
हर मंदिर की घंटी में,
हर अज़ान की आवाज़ में,
हर बच्चे की मुस्कान में।
वो अब भी कहता है —
“भारत को बाँटो मत,
प्रेम को बाँट दो।”
कभी दिल्ली के राजपथ पर चलो,
उसकी समाधि पर झुको,
वो हवा अब भी फुसफुसाती है —
“मुझे माफ़ करना, बापू,
हम फिर से बाँट रहे हैं,
वही मिट्टी, वही मन।”
गांधी अब इतिहास नहीं,
एक चेतावनी हैं,
एक प्रश्न हैं —
क्या हमने उनसे कुछ सीखा?
क्या आज भी वह विभाजन हमारे मन में नहीं है?
क्या हम फिर वही गलती नहीं दोहरा रहे?
गांधीजी की लाठी आज भी पड़ी है,
पर ज़मीर उठाने वाला हाथ कम है।
उनकी प्रार्थना आज भी गूँजती है —
“सत्य ही ईश्वर है,
और ईश्वर ही प्रेम।”
वो गांधी था,
जो देश को जोड़ना चाहता था,
पर देश ने खुद को तोड़ लिया।
फिर भी,
हर टूटन में उसकी आत्मा कहती है —
“अभी भारत अधूरा है,
जब तक हर दिल में एकता नहीं होगी,
मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।”
♥️♥️
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