“एक झोपड़ी की दास्तान”

“एक झोपड़ी की दास्तान”


एक छोटी सी झोपड़ी है,
जिसकी दीवारें सांस लेती हैं,
छप्पर टपकता है हर बरसात में,
फिर भी वहीं जीवन बहता है।

बरसों से ये टप-टप की ध्वनि,
झोपड़ी की लोरी बन गई है,
नींद भी उसी के साथ आती है,
और उसी में सपने धुल जाते हैं।

चूल्हे में धुआँ नहीं उठता अब,
लकड़ी भी तो खरीदनी पड़ती है,
भूख का भी एक स्वाद होता है,
जो अब हर रोज़ चखना पड़ता है।

रातें लंबी, दिन हैं भारी,
जीवन लगता कोई सज़ा सारी,
फटे गद्दे पर बैठी माँ सोचती,
क्या यही है किस्मत की कारीगरी।

तीन बेटियाँ हैं उसके आँचल में,
तीन दीपक अधजले, अधूरे,
सबसे बड़ी चौदह की,
जिसने बचपन को जल्दी छोड़ा,
और रसोई में माँ की छाया बन गई।

मझली बारह की है,
जो मिट्टी में खेलना चाहती थी,
पर अब झाड़ू पकड़े रहती है,
क्योंकि घर की धूल भी पेट पालती है।

सबसे छोटी आठ की है,
जिसकी हँसी अभी भी बची है,
वो गोद में गुड़िया लेकर सोती है,
जैसे संसार में अब भी मासूमियत बाकी है।

माँ सोचती —
पढ़ा देती अगर इन्हें,
शायद तक़दीर कुछ और होती,
पर किताब भी तो रोटी की दुश्मन बन गई है।

कौन खरीदे किताबें जब पेट खाली हो,
जब स्याही से पहले आँसू गिरते हों,
जब स्कूल जाने का सपना
बस सड़क किनारे सुनाई दे।

पति…
जिसकी आँखों में कभी उम्मीद थी,
अब वहीं शराब का सागर है,
जहाँ हर रात डूब जाती है घर की शांति।

वो थोड़ बहुत कमाता है,
पर हाथ में आते ही वो पैसा
शराब की बोतल का रास्ता पकड़ लेता है।

माँ देखती है —
कैसे उसकी मेहनत, उसके आँसू
शराब की गंध में खो जाते हैं,
कैसे उसके सपनों की चिता
हर रात उसी गिलास में जलती है।

वो कहती है —
"मेरा बेटा नहीं हुआ,"
और यही वाक्य
उसके दिल पर बोझ बन बैठा है।

कितनी बार ओझा बुलाए,
कितनी बार वैद के दरवाजे गए,
कितनी बार मन्त्र फूंके गए,
पर किस्मत ने कान बंद कर लिए।

समाज की आँखें ताने,
पड़ोसिनें हँसती हैं पीठ पीछे,
"तीन बेटियाँ, बेटा नहीं!"
जैसे अपराध कर दिया उसने।

वो सोचती —
क्या बेटियाँ भगवान की गलती हैं?
क्या उनकी मुस्कान अधूरी है?
क्या वे भी तो मेरी सांसों की वजह नहीं?

पर समाज का तराजू
सिर्फ बेटे की तरफ झुकता है,
माँ की कोख पर दोष लगता है,
और पिता की शराब में सवाल बह जाता है।

हर दिन की शुरुआत
एक जंग से होती है —
भूख के विरुद्ध, गरीबी के खिलाफ,
और उम्मीदों की राख से।

सुबह होती है तो वो चूल्हे के पास,
थोड़ी सूखी रोटियाँ सेंकती है,
बेटियाँ रोटी की खुशबू से
अपना पेट भरने की कोशिश करती हैं।

कभी-कभी कोई दया करता है,
कभी कोई पुराना कपड़ा दे जाता है,
पर इज़्ज़त के बदले में,
कई बार आँसू गिराने पड़ते हैं।

रात ढलती है,
और झोपड़ी के छप्पर से चाँद झाँकता है,
जैसे भगवान खुद देख रहा हो —
कैसे उसका एक रूप
धरती पर तड़प रहा है।

वो आसमान की तरफ देखती है,
कहती — “हे ईश्वर,
क्यों तू इतना कठोर है?
क्या मेरी बेटियाँ तुझसे छोटी हैं?”

बिजली चमकती है,
बारिश फिर से शुरू होती है,
और झोपड़ी फिर कहती है —
“जीना अभी बाकी है।”

उसके हाथों में छाले हैं,
पर हिम्मत अब भी बाकी है,
उसके होंठ सूखे हैं,
पर दुआ अब भी बाकी है।

हर दिन का संघर्ष,
हर रात की थकान,
उसके जीवन की किताब में
इंसानियत का सबसे सच्चा अध्याय है।

बेटियाँ जब हँसती हैं,
तो झोपड़ी में रौशनी फैलती है,
वो हँसी गरीबी को भी मात देती है,
वो हँसी आशा बन जाती है।

माँ सोचती है —
“शायद भगवान ने बेटा नहीं दिया,
क्योंकि तीन देवियाँ दी हैं,
जो मेरे जीवन की रक्षा कर रही हैं।”

धीरे-धीरे वो मुस्कराती है,
उसके चेहरे पर दर्द और गर्व का संगम,
वो जानती है —
इन बेटियों से ही उसका नाम रहेगा।

सुबह होगी फिर,
झोपड़ी फिर जागेगी,
टपकता छप्पर फिर गुनगुनाएगा,
और जीवन…
फिर एक नई कविता बन जाएगा।

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