“आधुनिक राजनीति में सावरकर बनाम गांधी: एक विचारधारात्मक बदलाव”


“आधुनिक राजनीति में सावरकर बनाम गांधी: एक विचारधारात्मक बदलाव”


आधुनिक राजनीति गांधी से अधिक सावरकर को क्यों चुन रही है

भारत की राजनीति हमेशा से इतिहास के प्रतीकों का उपयोग अपने समय की ज़रूरतों के अनुसार करती रही है। कभी गांधी के विचारों को राजनीतिक मंचों पर आदर्श बनाया गया, तो आज के दौर में विनायक दामोदर सावरकर को एक नए राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उभारा जा रहा है। यह बदलाव केवल व्यक्ति या विचार का नहीं, बल्कि भारत की आत्मा और उसकी दिशा का है।

जहाँ गांधी अहिंसा, करुणा, और नैतिकता के प्रतीक हैं, वहीं सावरकर राष्ट्रवादी जोश, आत्मगौरव और शक्ति के प्रतीक बन गए हैं। आधुनिक राजनीति अब गांधी की शांति से अधिक सावरकर की दृढ़ता को चुन रही है — शायद इसलिए क्योंकि आज का दौर संघर्ष और आक्रामकता को अधिक पसंद करता है, संयम और करुणा को नहीं।


गांधी और सावरकर: दो विचार, दो दिशाएँ

गांधी का भारत अहिंसा और सत्य पर आधारित था। उनके लिए स्वतंत्रता केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं थी, बल्कि सामाजिक समानता, धार्मिक सौहार्द और आत्मसंयम की यात्रा थी।
उन्होंने कहा था – “स्वतंत्रता का अर्थ केवल अंग्रेज़ों से मुक्ति नहीं, बल्कि अपने भीतर के भय, घृणा और लालच से मुक्ति है।”

सावरकर का दृष्टिकोण बिल्कुल अलग था। उन्होंने हिंदुत्व को एक सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के रूप में प्रस्तुत किया। उनके लिए राष्ट्र वही था जो एक ही सभ्यता, संस्कृति और धर्म से जुड़ा हो। जहाँ गांधी ने भारत को विविधताओं में एकता का देश माना, वहीं सावरकर ने उसे एकरूपता के आधार पर देखने की कोशिश की।

आज की राजनीति में गांधी की करुणा और क्षमा से अधिक सावरकर की शक्ति और आक्रोश को सम्मान मिल रहा है — क्योंकि आधुनिक समाज को अब “नैतिक बल” से ज़्यादा “राजनीतिक बल” की ज़रूरत लगती है।


राजनीति की सुविधा का प्रतीक बनते सावरकर

आज सावरकर को याद करना एक वैचारिक आग्रह से ज़्यादा एक राजनीतिक रणनीति बन गया है। जिन राजनीतिक दलों की जड़ें हिंदुत्व या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में हैं, उनके लिए सावरकर एक आदर्श प्रतीक हैं।
गांधी का आदर्श कठिन है — आत्मत्याग, सादगी, और क्षमा।
सावरकर का आदर्श आसान है — गर्व, प्रतिरोध, और शक्ति का प्रदर्शन।

राजनीतिक भाषणों में, चुनावी नारों में, और मीडिया के विमर्शों में सावरकर की छवि अब “राष्ट्र की शान” के रूप में उभरती है, जबकि गांधी की छवि एक “नैतिक उपदेशक” के रूप में सीमित की जा रही है। यह परिवर्तन सोच का नहीं, सुविधा का परिणाम है।


मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका

आधुनिक मीडिया ने इतिहास को नए रंगों में रंग दिया है।
फिल्में, टीवी चर्चाएँ, और सोशल मीडिया पोस्ट्स में सावरकर को एक नायक के रूप में दिखाया जाता है — जो ब्रिटिशों से लड़ा, जेल में कष्ट सहे, और हिंदू गौरव की रक्षा की।
दूसरी ओर, गांधी को कई बार “कमज़ोर” या “अत्यधिक आदर्शवादी” बताकर उनका मज़ाक उड़ाया जाता है।

यह नया आख्यान युवाओं के मन में यह धारणा पैदा कर रहा है कि गांधी का मार्ग आज के दौर में “अप्रासंगिक” है। लेकिन यह भूल खतरनाक है, क्योंकि यही गांधी का मार्ग था जिसने भारत को नफरत से नहीं, प्रेम से स्वतंत्रता दिलाई थी।


राष्ट्रवाद का बदलता चेहरा

गांधी का राष्ट्रवाद “सबका भारत” था — एक ऐसा भारत जहाँ मुसलमान, हिंदू, ईसाई, सिख, दलित, सब एक ही धरती के पुत्र थे।
सावरकर का राष्ट्रवाद “एक धर्म, एक संस्कृति” की भावना पर आधारित था।
आज की राजनीति में दूसरा विचार अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि यह विभाजन पैदा करता है — और विभाजन से वोट की राजनीति आसान हो जाती है।

“एकता में विविधता” अब “एक विचार में एकरूपता” बनती जा रही है। यही परिवर्तन भारत की आत्मा को सबसे ज़्यादा चोट पहुँचाता है।


राजनीतिक गणित और ऐतिहासिक चयन

सावरकर को याद करने के पीछे भावनाओं से अधिक गणना है।
उनकी जेल की यातनाओं, उनकी लेखनी, और उनके “वीर सावरकर” होने की कथा को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है।
लेकिन उनके ब्रिटिश शासन को लिखे गए क्षमायाचनापत्र या गांधी के प्रति उनके कठोर विचारों को प्रायः छिपा लिया जाता है।

गांधी की विरासत का उपयोग केवल उनके जन्मदिन पर फूल चढ़ाने तक सीमित हो गया है, लेकिन उनके सिद्धांतों को राजनीति से दूर रखा जाता है — क्योंकि गांधी का मार्ग विभाजन नहीं, मेल-मिलाप सिखाता है।


इस परिवर्तन के परिणाम

जब गांधी की मूर्तियाँ धूल से ढक जाती हैं और सावरकर के चित्र सरकारी दीवारों पर सजे रहते हैं, तो यह केवल प्रतीक नहीं — यह सोच का परिवर्तन है।
यह राष्ट्र के नैतिक मार्गदर्शन का बदलना है।
यह राष्ट्रवाद की परिभाषा को “प्यार” से “प्रभुत्व” की ओर मोड़ देना है।

ऐसा राष्ट्रवाद जो केवल एक समुदाय की भावना को पोषित करे, वह गांधी के भारत की आत्मा से मेल नहीं खा सकता।


संतुलन की आवश्यकता

इतिहास किसी एक व्यक्ति की संपत्ति नहीं होता।
गांधी और सावरकर — दोनों ने भारत के इतिहास में अपनी भूमिका निभाई है।
सावरकर का साहस, संगठन-शक्ति, और स्वाधीनता के लिए उनका योगदान अपनी जगह है।
पर गांधी ने जो दिया — नैतिकता, सत्य, और अहिंसा का शाश्वत मार्ग — वही भारत को आत्मा प्रदान करता है।

यदि हम एक को ऊँचा उठाकर दूसरे को गिराते हैं, तो हम इतिहास को नहीं, अपने भविष्य को खो देते हैं।


निष्कर्ष: भारत की आत्मा का चौराहा

गांधी और सावरकर के बीच चुनाव किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि विचार का चुनाव है।
गांधी का भारत करुणा, सत्य और समानता पर आधारित था।
सावरकर का भारत गर्व, शक्ति और पहचान पर।

आधुनिक राजनीति में शक्ति की भाषा ज़्यादा प्रभावशाली है, परन्तु राष्ट्र की स्थायी शांति केवल नैतिकता से आती है।
भारत को दोनों की ज़रूरत है — सावरकर की दृढ़ता और गांधी की दया।

परंतु यदि राजनीति गांधी के विचारों को भूलकर केवल सावरकर के जोश को अपनाती रही, तो यह राष्ट्र केवल शक्तिशाली तो बनेगा, पर मानवीय नहीं रहेगा।
और जब कोई राष्ट्र अपनी मानवीयता खो देता है — तब वह जीतकर भी हार जाता है।



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