एक बच्चे का जन्म होता है...
भीषण बारिश हो रही है,
जुलाई का महीना है,
चारों तरफ़ पानी ही पानी।
एक माँ अस्पताल में भर्ती है,
संध्या का समय है,
और उसी घड़ी एक बच्चे का जन्म होता है।
पाँच-छह साल का भाई बहुत खुश है,
क्योंकि उसे पूरा यक़ीन था कि इस बार उसे एक छोटा भाई मिलेगा।
माँ-बाप की बातों में उसने सुना था — “शायद इस बार बेटी होगी।”
पर उस बच्चे के मन में विश्वास था कि भाई ही आएगा।
वह दौड़कर अस्पताल के कमरे में पहुँचा,
जहाँ माँ के पास उसका लाल-लाल, नन्हा भाई लेटा था।
फौरन पंडित जी को दिखाया गया —
कहा गया, “बच्चा सताइसवाँ में है,
गाँव जाना पड़ेगा।”
पिता को इन बातों का कोई ज्ञान नहीं था,
इसलिए बुआ को बुलाया गया।
इतनी बारिश,
बसें बंद, रास्ते टूटी हुई।
किसी तरह थोड़ी दूरी तक पहुँचे,
आगे के लिए माँ और नवजात को लेकर एक रिक्शा तय किया गया,
साथ में तीन साल की छोटी बहन भी थी।
बुआ मोटरसाइकिल से पीछे-पीछे चल पड़ीं,
और पिता अपने पाँच साल के बेटे का हाथ थामे पैदल।
यात्रा शुरू होती है —
भीषण बारिश में,
आख़िरी आठ-नौ किलोमीटर का सफ़र बाकी।
कितना दर्दनाक रहा होगा वो सफ़र उस माँ के लिए,
जो बस एक दिन पहले माँ बनी थी।
टूटे-फूटे, कीचड़ से भरे गाँव के रास्ते,
और बीच-बीच में खेतों की दलदली मिट्टी।
पिता और पुत्र पैदल,
रिक्शा के पीछे-पीछे चलते हुए।
हर थोड़ी दूर पर कोई झोपड़ी दिखती,
तो बच्चा पूछता — “पापा, क्या ये हमारा गाँव आ गया?”
वो पहली बार इतनी लंबी यात्रा कर रहा था।
पिता मुस्कुराते हुए कहते — “बस थोड़ी दूर और।”
जीवन कितना निर्मम है,
कितने संघर्षों से गुज़रना पड़ता है।
कभी गरीबी,
कभी संसाधनों की कमी —
फिर भी सब सुरक्षित पहुँच जाते हैं गाँव।
फिर होती है बच्चे की छठी,
छोटा-सा भोज,
और उसके बाद सताइसवाँ का कर्मकांड —
दान-दक्षिणा, पूजा-पाठ, और फिर वही सादा भोजन।
जीवन आगे बढ़ जाता है,
पर बारिश अब भी मूसलधार बरसती रहती है —
मानो उस सफ़र, उस संघर्ष,
और उस नन्हे जीवन के जन्म की गवाही दे रही हो।
आगे चलकर बच्चे का नाम भी भाई के द्वारा दिया जाता है।
रूपेश रंजन
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