गांधीजी और भारत का विभाजन: आदर्श, पीड़ा और राजनीति की कहानी



गांधीजी और भारत का विभाजन: आदर्श, पीड़ा और राजनीति की कहानी

भारत का विभाजन (Partition of India) 1947 में हुआ — एक ऐसा ऐतिहासिक क्षण जिसने एक ओर आज़ादी का सपना पूरा किया, तो दूसरी ओर देश को गहरी चोट दी। यह वह दौर था जब आज़ादी की घंटी बजी, पर उसके साथ ही लाखों करुण चीत्कार भी उठे। इस पूरी त्रासदी के केंद्र में थे — महात्मा गांधी, जिनका पूरा जीवन हिंदू-मुस्लिम एकता, अहिंसा और सत्य पर आधारित था।
लेकिन इतिहास का यह सबसे बड़ा विरोधाभास यही था कि जिस व्यक्ति ने जीवनभर विभाजन रोकने की कोशिश की, उसी के सामने भारत दो हिस्सों में बँट गया।


1. गांधीजी का एकता का सपना

गांधीजी की भारत के प्रति दृष्टि केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक थी। वे भारत को धर्मों, जातियों और भाषाओं से परे एक सांस्कृतिक इकाई मानते थे। उनका आदर्श था “सर्व धर्म समभाव” — सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान।

1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद उन्होंने देखा कि भारत कई सामाजिक और धार्मिक दरारों में बँटा हुआ है। उन्होंने अपने आंदोलनों — खिलाफत आंदोलन, असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन — में हिंदू-मुस्लिम एकता को केंद्रीय स्थान दिया।

उनका मानना था —

“धर्म राष्ट्र की सीमाओं का निर्धारण नहीं कर सकता, क्योंकि धर्म मनुष्य के भीतर का मामला है, राजनीति का नहीं।”


2. विभाजन की जड़ें: अंग्रेज़, कांग्रेस और मुस्लिम लीग

गांधीजी के प्रयासों के बावजूद, 1930 और 1940 के दशक में धार्मिक विभाजन की जड़ें गहरी हो चुकी थीं। ब्रिटिश शासकों की नीति “फूट डालो और राज करो” ने हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच अविश्वास पैदा किया।

एक ओर कांग्रेस खुद को राष्ट्रवादी और धर्मनिरपेक्ष बताती थी, पर उसमें हिंदू बहुल नेतृत्व की छवि मजबूत थी। दूसरी ओर मुस्लिम लीग, जो मूलतः अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षक पार्टी थी, धीरे-धीरे एक अलग राष्ट्र “पाकिस्तान” की मांग करने लगी।

मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में लीग ने “दो-राष्ट्र सिद्धांत” पेश किया — कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं और वे साथ नहीं रह सकते।
गांधीजी ने इसे सिरे से नकार दिया। उनका कहना था —

“भारत दो राष्ट्र नहीं है, यह एक शरीर है — जिसके धर्म, भाषाएँ और संस्कृतियाँ उसकी विविध आत्माएँ हैं।”


3. असफल प्रयास और गहराती दरार

गांधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दशक में बार-बार समझौते की कोशिश की — चाहे वह राउंड टेबल कॉन्फ़्रेंस हो, क्रिप्स मिशन हो या कैबिनेट मिशन प्लान
वे बार-बार कांग्रेस और मुस्लिम लीग को एकता के सूत्र में बाँधना चाहते थे।

परंतु दोनों पक्षों में अविश्वास इतना बढ़ चुका था कि गांधीजी की नैतिक आवाज़ को व्यावहारिक राजनीति ने दबा दिया।
जहाँ नेहरू और पटेल धीरे-धीरे विभाजन को “अनिवार्य बुराई” मानने लगे, वहीं गांधीजी का हृदय इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

उन्होंने कहा था —

“मैं कभी भारत के विभाजन को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी आत्मा इसका विरोध करती है।”


4. गांधीजी की एकाकी पीड़ा

1947 तक आते-आते गांधीजी अकेले पड़ गए थे। कांग्रेस नेतृत्व सत्ता के हस्तांतरण की दिशा में आगे बढ़ चुका था, पर गांधीजी का ध्यान सत्ता नहीं, समाज की एकता पर था।

देश के कई हिस्सों में दंगे भड़क उठे — बंगाल, पंजाब और दिल्ली में खून की नदियाँ बह रही थीं।
गांधीजी हिंसा के बीच शांति का दीपक बनकर चलते रहे — नोआखाली, कलकत्ता और दिल्ली की गलियों में वे लोगों से भाईचारा कायम रखने की अपील करते रहे।

वे कहते थे —

“अगर हिंदू और मुसलमान मुझे सुन लें, तो मैं अपने शरीर को जला डालूँगा, पर देश को नहीं जलने दूँगा।”

लेकिन देश जल उठा।


5. विभाजन और आज़ादी: एक साथ खुशी और शोक

15 अगस्त 1947 — आज़ादी का दिन था, पर गांधीजी के लिए यह “विभाजन का शोक दिवस” था।
जहाँ एक ओर देश में उत्सव का माहौल था, वहीं गांधीजी कलकत्ता में उपवास और प्रार्थना कर रहे थे।

उन्होंने कहा था —

“आज जब भारत स्वतंत्र हुआ है, मैं उल्लास नहीं, केवल आँसू देख रहा हूँ। आज़ादी का यह उत्सव मेरे लिए पीड़ा का पर्व है।”

विभाजन की कीमत बहुत भारी थी —
लगभग दस लाख लोग मारे गए, एक करोड़ से अधिक बेघर हुए, और अनगिनत परिवार बिछड़ गए।
धर्म के नाम पर मनुष्यता की सबसे बड़ी त्रासदी घटी।


6. गांधीजी का नैतिक बल और अमर विरासत

विभाजन को रोक न पाने के बावजूद गांधीजी का नैतिक बल अडिग रहा।
जब पूरा देश हिंसा में डूबा था, गांधीजी ने अपनी अहिंसा से हजारों जिंदगियाँ बचाईं। उनका उपवास केवल राजनीतिक साधन नहीं था, बल्कि आत्मशुद्धि का प्रयास था।

उनकी हत्या जनवरी 1948 में नाथूराम गोडसे ने की — जिसने उन पर “मुसलमानों का पक्ष लेने” का आरोप लगाया।
लेकिन वास्तव में गांधीजी न तो किसी धर्म के थे, न किसी समुदाय के। वे केवल “मानवता” के पक्षधर थे।

उन्होंने कहा था —

“अगर भारत को महान बनना है, तो उसे प्रेम और सत्य के मार्ग पर चलना होगा, न कि घृणा और हिंसा के।”


7. इतिहास का निर्णय

इतिहासकारों ने गांधीजी की भूमिका पर अनेक मत दिए हैं।
कुछ उन्हें “अव्यावहारिक आदर्शवादी” कहते हैं, तो कुछ उन्हें “एकमात्र नैतिक चेतना” मानते हैं।
सत्य शायद इन दोनों के बीच है।

विभाजन केवल गांधीजी की असफलता नहीं थी — यह पूरी नेतृत्व पीढ़ी, औपनिवेशिक राजनीति और धार्मिक कट्टरता की सामूहिक विफलता थी।
परंतु इस अंधकार के बीच भी गांधीजी का दीपक जलता रहा — सत्य, प्रेम और करुणा का दीपक।


8. आज के भारत के लिए संदेश

गांधीजी और विभाजन की कहानी केवल इतिहास नहीं, आज के भारत के लिए चेतावनी भी है।
धर्म, जाति और भाषा के नाम पर फैलती नफरत हमें उसी मार्ग पर ले जा सकती है, जहाँ 1947 की त्रासदी ने हमें पहुँचाया था।

गांधीजी का जीवन हमें सिखाता है कि —

“एकता सत्ता से नहीं, समझ से बनती है; राष्ट्र की ताकत उसकी विविधता में है, न कि एकरूपता में।”

उनका सपना अब भी अधूरा है — एक ऐसा भारत जहाँ सभी धर्मों के लोग समान गरिमा से रहें, जहाँ राजनीति में नैतिकता हो, और जहाँ विभाजन की भाषा के लिए कोई जगह न हो।


निष्कर्ष

गांधीजी और भारत के विभाजन की कहानी आदर्शों की, पीड़ा की, और अंततः मानवता की कहानी है।
उन्होंने भले ही देश के बँटवारे को न रोक पाए हों, पर उन्होंने मानवता के बँटवारे को रोकने का प्रयास किया।

उनकी आत्मा हमें आज भी याद दिलाती है कि —

“सत्य और प्रेम की राह हमेशा कठिन होती है, लेकिन अंततः वही जीतती है।”

भारत का इतिहास भले ही दो हिस्सों में बाँटा गया हो, पर गांधीजी का संदेश आज भी अविभाज्य है —
अहिंसा, करुणा और एकता का संदेश।



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