“चरखे का संत”

“चरखे का संत”



संध्या के आकाश में धूप झिलमिलाई,
आँगन में बैठा एक वृद्ध,
हाथों में चरखा,
मन में शांति का नाद।

धीरे-धीरे सूत कातता,
जैसे ब्रह्मांड के तंतुओं को बुन रहा हो,
हर धागा एक विचार,
हर चक्कर एक तपस्या।

वो न तो कारीगर था,
न ही व्यापारी,
पर उसके चरखे से निकली ध्वनि
क्रांति की पुकार बन गई।

वो कहता था —
“जिस दिन भारत का हर घर
अपने वस्त्र खुद बुन लेगा,
उस दिन दासता का धागा टूट जाएगा।”

चरखा उसके लिए केवल यंत्र नहीं था,
वो आत्मा का संगीत था,
जो धीरे-धीरे घूमते हुए
मनुष्य को अपने भीतर झाँकना सिखाता था।

उसके चारों ओर न कोई दरबार,
न कोई सेना,
सिर्फ सूत, धूप, और सन्नाटा —
पर उसी सन्नाटे में आज़ादी की आहट थी।

वो जब सूत कातता,
तो बच्चों को सिखाता,
“हर धागा एक कर्म है,
हर सूत एक जिम्मेदारी।”

वो चरखा नहीं चलाता था,
बल्कि राष्ट्र की नसों में
स्वावलंबन का रक्त भर देता था।

उसके हाथों की गति में
सरलता थी, पर शक्ति भी,
क्योंकि वो जानता था —
क्रांति तलवार से नहीं,
चरखे से भी लाई जा सकती है।

वो कहता —
“हमारे वस्त्र विदेशी क्यों?
क्या हमारी मिट्टी में धागे नहीं उगते?”
और उसका प्रश्न
एक सम्पूर्ण जनजागरण बन गया।

चरखा उसके लिए प्रतीक था —
स्वाभिमान का, श्रम का,
और आत्मनिर्भरता के स्वप्न का।

जब लोग उसे देख हँसते,
तो वो मुस्कराकर कहता,
“सूत में जो धैर्य है,
वो तलवार में कहाँ?”

उसके लिए हर कपड़ा
राष्ट्रभक्ति का वस्त्र था,
हर धागा — एक प्रार्थना।

चरखा घूमता रहा,
जैसे समय घूम रहा हो,
और उसके साथ
एक नई चेतना जन्म लेती रही।

वो कहता —
“हर मनुष्य के पास एक चरखा हो,
ताकि वो भूख से नहीं,
सम्मान से जिए।”

उसके चरखे की गूंज
किसानों के खेतों तक पहुँची,
गाँवों के चूल्हों तक,
स्त्रियों की आँखों तक।

वो कोई साधारण यंत्र नहीं था,
वो मनुष्य की आत्मा का प्रतीक था,
जो अपने श्रम से स्वतंत्र होता है।

वो बुजुर्ग संत जब सूत बुनता,
तो जैसे विचार बुनता,
“सादगी सबसे बड़ा वैभव है।”

उसकी उंगलियों में थकान नहीं,
शांति थी,
क्योंकि वो जानता था —
हर सूत में भारत की साँस बसी है।

चरखा उसके पास धर्म बन गया,
जहाँ कर्म पूजा था,
और कपास का रेशा — वेद का मंत्र।

वो कहता —
“यह चरखा हमें जोड़ता है,
धर्म से नहीं, श्रम से।”

वो उस यंत्र को ईश्वर मानता,
जो किसी को हानि नहीं पहुँचाता,
जो युद्ध नहीं करता,
पर क्रांति की नींव रखता है।

जब कोई पूछता —
“इससे क्या होगा, बापू?”
तो वो कहता —
“जो खुद बना सके,
वो किसी का गुलाम नहीं।”

चरखा उसकी आत्मा का चक्र था,
जो घूमते हुए समय को साध रहा था।
हर चक्कर में एक संदेश,
हर सूत में एक स्मृति।

कभी सूत टूटता,
वो मुस्करा उठता —
“देखो, मन भी ऐसा ही है,
धीरे-धीरे संभालो तो फिर जुड़ जाता है।”

उसने चरखे को
राजनीति नहीं, अध्यात्म बनाया।
वो सूत में दर्शन खोजता,
और कपड़े में करुणा।

चरखा उसके हाथों में नहीं,
उसके विचारों में घूमता था।
वो कहता —
“जिसने श्रम को पूजा नहीं माना,
वो स्वतंत्रता का पात्र नहीं।”

उसके कमरे में चरखे की आवाज़
घंटी जैसी बजती,
और हर सुबह उसका घूमना
एक नया आरंभ लगता।

जब वो चरखे को
“प्रार्थना का साथी” कहता,
तो पूरा भारत मौन होकर
श्रद्धा से सुनता।

चरखे के उस संत ने
दिखाया —
कि क्रांति का बीज
शांति में भी बोया जा सकता है।

वो जानता था —
जब तक भारत
दूसरों के धागे पर कपड़े सिएगा,
वो आत्मा में नग्न रहेगा।

इसलिए वो कहता —
“स्वदेशी केवल वस्त्र नहीं,
स्वाभिमान का वस्त्र है।”

वो spinning wheel नहीं,
घूमता हुआ सूर्य था,
जो अंधकार में प्रकाश फैलाता था।

वो सिखाता था —
“खुद करो, खुद बनो, खुद जियो,”
और यही उसकी तपस्या थी।

चरखा उसके लिए आराधना था,
जहाँ हर चक्कर
संसार की पीड़ा से मुक्ति का मंत्र था।

जब उसने अंग्रेज़ी वस्त्र जलवाए,
तो वो अग्नि नहीं,
आत्मसम्मान की दीक्षा थी।

वो चरखा
महलों से नहीं,
कुटियाओं से गूंजा,
और वहीं से
राष्ट्र का नया गान उठा।

उसका चरखा आज भी घूमता है —
किसी किसान की हथेली में,
किसी स्त्री की आँखों में,
किसी बच्चे की मुस्कान में।

वो अब भी सिखाता है —
“जो खुद रचता है,
वो सृष्टि का भागी होता है।”

चरखे का वह संत आज भी
समय के पार खड़ा है,
हर सूत के साथ कहता हुआ —
“सत्य और श्रम, यही मेरा धर्म।”

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