महात्मा गांधी और राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस: संवैधानिक सुधारों की दिशा में एक यात्रा
🕊️ महात्मा गांधी और राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस: संवैधानिक सुधारों की दिशा में एक यात्रा
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास अक्सर बड़े आंदोलनों, नागरिक अवज्ञा और राजनीतिक वार्ता के माध्यम से याद किया जाता है। ऐसे ही एक महत्वपूर्ण अध्याय में आते हैं राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस (1930–1932), जो ब्रिटेन और भारतीय नेतृत्व के बीच हुए संवैधानिक संवाद का प्रतीक हैं।
इस मंच पर, महात्मा गांधी की उपस्थिति, नैतिक अधिकार और रणनीतिक सोच ने भारत के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यह केवल राजनीतिक बैठकें नहीं थीं; यह संधान, नैतिकता और प्रतिनिधित्व का प्रयोग था। गांधीजी की भागीदारी ने दुनिया को दिखाया कि बिना हिंसा के भी राजनीतिक प्रभाव डाला जा सकता है।
🔹 पृष्ठभूमि: राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस तक का मार्ग
1920 के दशक के अंत तक भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी।
गैर-सहयोग आंदोलन और नागरिक अवज्ञा आंदोलन ने जनता की शक्ति दिखा दी थी, लेकिन ब्रिटिश शासन अभी भी वास्तविक स्वशासन देने को तैयार नहीं था।
साथ ही, हिंदू-मुस्लिम विभाजन और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व पर विवाद संवैधानिक सुधारों को जटिल बना रहे थे।
इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करने और समाधान निकालने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पहली राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस (1930–1931) बुलाई। इसका उद्देश्य था भारत के शासन और भविष्य के लिए संवैधानिक सुधारों का मार्ग ढूँढना।
🔹 गांधीजी की भूमिका और लंदन आगमन
पहली कॉन्फ्रेंस में गांधीजी को आमंत्रित नहीं किया गया था।
लेकिन भारतीय राजनीतिक समूहों और गांधीजी की जनता में अनूठी प्रतिष्ठा के कारण, उन्हें दूसरी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस (1931) में आमंत्रित किया गया।
गांधीजी कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में लंदन पहुंचे। यह अप्रत्याशित और अद्वितीय था:
एक अहिंसात्मक आंदोलन के नेता ने ब्रिटिश साम्राज्य के हृदय में जाकर भारत का पक्ष रखा।
गांधीजी की शैली बेहद सरल और नैतिक थी। उन्होंने विलासिता ठुकराई, सादगी अपनाई, और सत्य, नैतिकता और व्यक्तिगत ईमानदारी पर भरोसा किया। उनके लिए यह सिर्फ राजनीतिक संवाद नहीं था, बल्कि भारतीय जनता का प्रतिनियुक्ति मंच था।
🔹 कॉन्फ्रेंस में प्रमुख विषय
1930–1932 के दौरान तीन राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस आयोजित हुए, जिनमें कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई:
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भारतीय प्रतिनिधित्व:
गांधीजी ने आम जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने पर जोर दिया, ताकि शासन में केवल अभिजात वर्ग की नहीं, बल्कि सामान्य जनता की भी आवाज़ हो। -
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व:
गांधीजी ने अछूत (अल्पसंख्यक/दब्बित वर्ग) के अधिकारों की रक्षा की और अलग निर्वाचन प्रणाली (Separate Electorates) का विरोध किया।
उनका मानना था कि राष्ट्रीय एकता विभाजन से अधिक महत्वपूर्ण है। -
संवैधानिक सुधार:
गांधीजी ने कहा कि कोई भी सुधार भारत की सामाजिक वास्तविकताओं के अनुरूप होना चाहिए — इसमें ग्रामीण चिंताएँ, आर्थिक असमानताएँ और नैतिक शासन शामिल थे।
उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को याद दिलाया कि स्वतंत्रता केवल कानूनी अधिकार नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक रूपांतरण भी है। -
आर्थिक न्याय:
गांधीजी ने गाँवों को सशक्त बनाने और गरीबी दूर करने पर जोर दिया। उन्होंने चेताया कि बिना आर्थिक सुधार के संवैधानिक व्यवस्था सिर्फ कागज़ पर ही होगी।
🔹 गांधीजी के सामने चुनौतियाँ
कॉन्फ्रेंस कई कठिनाइयों से भरी थी:
- ब्रिटिश अधिकारियों का प्रतिरोध: कई अधिकारी केवल साम्राज्य बनाए रखने में अधिक रुचि रखते थे।
- भारतीय नेतृत्व में मतभेद: गांधीजी को हिंदू-मुस्लिम और अल्पसंख्यक अधिकारों पर संतुलन बनाना था।
- भारत में राजनीतिक दबाव: नागरिक अवज्ञा आंदोलन अभी जारी था, और गांधीजी की लंबी अनुपस्थिति पर आलोचना भी हुई।
इन सबके बावजूद, गांधीजी की मौजूदगी ने बैठक को नैतिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली बना दिया।
🔹 परिणाम और ऐतिहासिक महत्व
हालाँकि राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस से तुरंत स्वतंत्रता नहीं मिली, लेकिन कई महत्वपूर्ण परिणाम सामने आए:
- भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व: कांग्रेस और आम लोगों की भागीदारी मान्यता प्राप्त हुई।
- अछूत वर्ग के अधिकार: कुछ सुरक्षा उपाय लागू हुए, हालाँकि आगे चलकर पूना संधि (1932) की आवश्यकता पड़ी।
- नैतिक नेतृत्व का उदाहरण: गांधीजी ने वैश्विक स्तर पर दिखा दिया कि राजनीति में नैतिकता और अहिंसा का महत्व है।
इसके परिणामस्वरूप सरकार ऑफ इंडिया एक्ट (1935) आया, जो भारत के संवैधानिक विकास के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है।
🔹 गांधीजी का दर्शन और राजनीति
राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस गांधीजी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रयोग का उदाहरण हैं।
यह दिखाता है कि:
- नेतृत्व का अर्थ केवल आंदोलन चलाना नहीं, बल्कि अव声音 की रक्षा करना भी है।
- राजनीतिक वार्ता बिना नैतिक स्पष्टता के व्यर्थ है।
- नैतिक विश्वास कठोर सत्ता को भी प्रभावित कर सकता है।
गांधीजी ने साबित किया कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक लक्ष्य नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक परिवर्तन भी है।
✨ निष्कर्ष
राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस यह दिखाती हैं कि गांधीजी का अद्भुत गुण नैतिक और अहिंसात्मक नेतृत्व में था।
लंदन में एक साधारण व्यक्ति के रूप में उन्होंने विश्व राजनीति पर अमिट प्रभाव डाला।
गांधीजी के इस प्रयास से यह सिद्ध होता है कि:
- सत्य और अहिंसा से भी राजनीतिक शक्ति प्रभावित होती है।
- प्रतिनिधित्व और समावेशी नीति संवैधानिक व्यवस्था जितनी ही महत्वपूर्ण है।
- सामाजिक न्याय और राजनीतिक स्वतंत्रता एक साथ चलनी चाहिए।
जैसा गांधीजी ने कहा:
“मैं हमेशा मानता आया हूँ कि सत्य और प्रेम भय और बल से अधिक शक्तिशाली हैं।”
राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस केवल संवैधानिक सुधार की चर्चा नहीं थी, बल्कि एक नैतिक और लोकतांत्रिक भारत की नींव रखने का प्रयास था।
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