गाँधी और सावरकर : एक राष्ट्र, दो दृष्टिकोण
गाँधी और सावरकर : एक राष्ट्र, दो दृष्टिकोण
इतिहास केवल युद्धों और विजयों से नहीं लिखा जाता,
वह उन विचारों से बनता है जो एक राष्ट्र की आत्मा को दिशा देते हैं।
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की गाथा में दो नाम ऐसे हैं जो एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक ही लक्ष्य की ओर बढ़े —
महात्मा गाँधी और विनायक दामोदर सावरकर।
दोनों की राहें अलग थीं, पर मंज़िल एक थी —
माँ भारती की मुक्ति,
उसकी गरिमा, और उसकी आत्मा का पुनर्जागरण।
एक ने प्रेम से जकड़े बेड़ियों को तोड़ने का स्वप्न देखा,
दूसरे ने क्रांति की अग्नि से उन बेड़ियों को पिघलाने का प्रण लिया।
एक ने कहा — “अहिंसा ही सबसे बड़ी शक्ति है।”
दूसरे ने कहा — “शक्ति ही सम्मान की पहली शर्त है।”
और इन्हीं दो विचारों के संगम ने भारत की स्वतंत्रता की कहानी को पूर्ण बनाया।
महात्मा गाँधी : सत्य और अहिंसा का साधक
1915 में जब मोहनदास करमचंद गाँधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे,
तो वे केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार बन चुके थे।
उन्होंने अन्याय और अपमान को अपनी आत्मा पर महसूस किया था,
और उस पीड़ा से उन्होंने जन्म दिया था — सत्याग्रह का।
गाँधी का मानना था कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक अधिकार नहीं,
बल्कि आत्मा की मुक्ति है।
उन्होंने कहा — “जो दूसरों को जीतना चाहता है, पहले स्वयं को जीतना सीखे।”
उनकी अहिंसा कमजोरी नहीं थी, बल्कि आत्मबल का सर्वोच्च रूप थी।
उन्होंने जनसाधारण को यह विश्वास दिलाया कि
सत्य और प्रेम, किसी भी साम्राज्य की तोपों से शक्तिशाली हैं।
चरखा उनके लिए केवल धागा नहीं था,
बल्कि आत्मनिर्भरता का प्रतीक था।
नमक सत्याग्रह केवल कर-विरोध नहीं,
बल्कि अन्याय के विरुद्ध नैतिक विद्रोह था।
गाँधी ने भारत को आत्मा दी —
एक ऐसा भारत जो सबका हो,
जहाँ हिंदू-मुस्लिम एक हों,
जहाँ सेवा, करुणा और सत्य सर्वोपरि हों।
विनायक दामोदर सावरकर : क्रांति के कवि और यथार्थवादी राष्ट्रभक्त
जहाँ गाँधी प्रेम और त्याग के प्रतीक बने,
वहीं सावरकर भारत के यथार्थवादी और क्रांतिकारी स्वप्नद्रष्टा थे।
1883 में जन्मे सावरकर ने युवावस्था में ही देखा था
कि केवल प्रार्थनाओं से नहीं, बलिदान से आज़ादी मिलती है।
लंदन में अध्ययन करते हुए उन्होंने 1857 के विद्रोह पर
ऐसी पुस्तक लिखी जिसने अंग्रेज़ शासन की नींव हिला दी —
“The Indian War of Independence”।
उनकी कलम ने इतिहास को नया अर्थ दिया —
“यह बगावत नहीं थी, यह था स्वाधीनता संग्राम।”
सावरकर ने कहा — “स्वाधीनता माँगने की वस्तु नहीं, छीनने का अधिकार है।”
उनका मानना था कि राष्ट्र की रक्षा केवल नैतिकता से नहीं, बल्कि शक्ति से होती है।
उनकी अवधारणा हिन्दुत्व धार्मिक नहीं,
बल्कि सांस्कृतिक थी —
भारतभूमि को साझा विरासत, साझा रक्त और साझा संस्कृति का संगम मानने वाली।
सेलुलर जेल की कालकोठरी में उन्होंने वर्षों की यातना सही,
लेकिन उनकी लेखनी नहीं थमी।
वे कहते थे — “हमारी जंजीरें हमारे इरादों को बाँध नहीं सकतीं।”
उनका दर्शन था —
“अहिंसा केवल तब तक अच्छी है जब तक वह राष्ट्र की रक्षा में बाधा न बने।”
दो विचारधाराएँ, एक स्वप्न
गाँधी और सावरकर के विचार भले विरोधी प्रतीत हों,
पर दोनों का लक्ष्य एक ही था — स्वाधीन भारत।
गाँधी ने भारत को आत्मा दी,
सावरकर ने उसे मेरुदंड दिया।
गाँधी ने कहा — “प्रेम से शत्रु को भी जीता जा सकता है।”
सावरकर ने कहा — “प्रेम तभी पवित्र है जब सम्मान सुरक्षित हो।”
गाँधी ने किसानों, मजदूरों और स्त्रियों को संघर्ष का हिस्सा बनाया,
उनमें आत्मबल जगाया।
सावरकर ने युवाओं में क्रांति की ज्वाला भरी,
उन्हें बताया कि भारतमाता की सेवा साहस से होती है, संकोच से नहीं।
दोनों ने अपनी-अपनी राह से एक ही स्वप्न देखा —
भारत स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और जागृत हो।
विचारों का संघर्ष नहीं, संवाद था
अक्सर इतिहास इन दोनों को विरोधी रूप में प्रस्तुत करता है।
परंतु सच्चाई यह है कि उनका मतभेद संघर्ष नहीं,
एक आवश्यक संवाद था।
गाँधी ने देखा कि प्रेम से भी साम्राज्य झुक सकते हैं।
सावरकर ने देखा कि केवल नैतिकता से अत्याचारी नहीं रुकते।
गाँधी ने कहा — “हिंसा आत्मा को नष्ट करती है।”
सावरकर ने कहा — “कमज़ोरी राष्ट्र को नष्ट करती है।”
दोनों ने अपने अनुभवों से यह सीखा जो उनकी राहों को अलग करता गया।
परंतु उनके हृदय में भारत ही सर्वोपरि रहा।
समय से परे दो विरासतें
आज भारत स्वतंत्र है,
पर स्वतंत्रता की यह कहानी अधूरी होती
यदि इसमें गाँधी की करुणा और सावरकर का साहस दोनों न होते।
गाँधी ने विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाया।
उनका प्रभाव मार्टिन लूथर किंग जूनियर से लेकर नेल्सन मंडेला तक पहुँचा।
सावरकर ने भारत को आत्म-सम्मान की चेतना दी,
जिससे आधुनिक भारत की पहचान बनी।
एक ने सिखाया कि “क्षमा” मनुष्य को महान बनाती है,
दूसरे ने सिखाया कि “अटलता” राष्ट्र को अमर बनाती है।
एक ने सत्य को आत्मा बनाया,
दूसरे ने बल को उसका रक्षक।
गाँधी और सावरकर : भारत की दो ध्रुवीय शक्तियाँ
भारत की आत्मा इन दोनों के बिना अधूरी है।
गाँधी की करुणा भारत का हृदय है,
सावरकर की निष्ठा उसका साहस।
यदि गाँधी ने भारत को झुकना सिखाया,
तो सावरकर ने उसे सीधा खड़ा होना सिखाया।
यदि गाँधी ने आत्मा को मुक्त किया,
तो सावरकर ने उसकी रीढ़ को मज़बूत किया।
भारत को इन दोनों की ज़रूरत थी —
प्रेम भी, पराक्रम भी;
सत्य भी, शक्ति भी।
निष्कर्ष : एक संवाद जो अनंत है
इतिहास किसी का पक्ष नहीं लेता,
वह केवल सत्य को अनेक रूपों में दिखाता है।
गाँधी और सावरकर उसी सत्य के दो रूप हैं —
एक का प्रकाश भीतर से आता है,
दूसरे की ज्वाला बाहर से जलती है।
गाँधी का भारत आत्मा की शांति चाहता है,
सावरकर का भारत आत्मसम्मान की गूँज।
दोनों ही मिलकर भारत का संपूर्ण रूप गढ़ते हैं।
आज जब दुनिया हिंसा, असहिष्णुता और स्वार्थ से जूझ रही है,
तो हमें गाँधी का प्रेम भी चाहिए
और सावरकर का साहस भी।
गाँधी की करुणा हमें जोड़ती है,
सावरकर की दृढ़ता हमें बचाती है।
इन दोनों के विचार मिलकर ही
भारत को “राष्ट्र” से “सभ्यता” बनाते हैं।
गाँधी और सावरकर —
दो दिशाएँ, एक लक्ष्य,
दो विचार, एक भारत।
एक ने हमें सिखाया कि सत्य ही परम बल है,
दूसरे ने दिखाया कि बल ही सत्य का प्रहरी है।
और शायद यही भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती है —
कि यहाँ विरोध भी संवाद है,
और भिन्नता भी एकता का आधार।
♥️♥️
ReplyDelete