व्यंग्य-काव्य : "सौंदर्य का तराजू" (एक गहरी व्यंग्यात्मक कविता)
व्यंग्य-काव्य : "सौंदर्य का तराजू"
(एक गहरी व्यंग्यात्मक कविता)
सदियों से अन्याय की परंपरा चली,
मर्द ने हुकूमत की, औरत झेली चली।
कभी परदा, कभी जंजीर, कभी रीति की दीवार,
हर युग ने गढ़े उसके लिए बंधन हजार।
पर एक और अपराध किया —
सबसे मीठा, पर सबसे घातक,
जब उसने कहा —
“तुम सुंदर हो…”
बस वहीं से आरंभ हुआ सौंदर्य का सौदा,
जहाँ इंसान नहीं, चेहरा बिकने लगा।
उसने आरती उतारी उसके नयन-नीर की,
गीत रचे उसकी काया की तासीर की,
कवियों ने लिखा — “तुम चाँद सी कोमल हो”,
पर भूल गए कि चाँद में दाग भी तो होते हैं!
चित्रकार ने रंगों में कैद किया तन,
पर मन को कभी कैनवास न बना सका।
सभ्यताओं ने उसकी मूरतें गढ़ीं,
पर आत्मा की ध्वनि को मौन रखा।
औरत को पूजा, फिर उसी की माप की,
हर बार कहा — “देवी हो”,
पर शर्तें जोड़ दीं —
“देवी वही जो सुघड़ हो, कोमल हो, विनम्र हो।”
अरे, देवी अगर सशक्त हो जाए तो डर लगता है?
या फिर देवता की गद्दी हिल जाती है?
समाज ने कहा —
“बेटी, तेरे बाल तेरे मुकुट हैं।”
“तेरी त्वचा तेरा गौरव है।”
“तेरा चेहरा तेरी पहचान है।”
और धीरे-धीरे औरत भूल गई —
कि पहचान उसके विचार हैं, चेहरा नहीं।
कार्यालयों में, संसदों में, मंचों पर,
जब वह पहुँची, तब भी तराजू वही रहा —
“अच्छा बोलती है, पर थोड़़ी मोटी लगती है।”
“काबिल है, पर मेकअप थोड़ा कम है।”
“समझदार है, पर हँसती ज़्यादा है।”
सौंदर्य की यह जाँच हर बार
योग्यता की गर्दन मरोड़ देती है।
और फिर —
वह खुद को देखने लगी आईने में,
हर सफलता के बाद, हर सम्मान के बाद।
मानो प्रमाणपत्र लेती हो खुद से —
“क्या मैं सच में सुंदर हूँ?”
क्योंकि दुनिया ने यही पढ़ाया —
‘सुंदरता ही स्त्री का सत्य है।’
यह व्यंग्य है उस समाज पर,
जो देवी की पूजा करता है,
पर इंसान से डरता है।
जो नारी को pedestal पर चढ़ाता है,
पर बराबरी की जमीन नहीं देता।
अब वक्त है —
कि वह आईना तोड़े,
चेहरे की जगह दृष्टि को नापे,
त्वचा की जगह विचारों को आँके।
क्योंकि असली सौंदर्य वही है —
जो किसी तराजू में नहीं आता।
चलो, अब नई परिभाषा लिखी जाए —
“औरत सुंदर नहीं, समझदार है।”
“औरत कोमल नहीं, कठोर भी है।”
“औरत पूजा नहीं, बराबरी की अधिकारी है।”
और जब वह मुस्कुराए आईने के बिना,
तो समझ लेना —
व्यंग्य खत्म नहीं हुआ,
बस उसने अपनी कहानी खुद लिखनी शुरू कर दी है।
रूपेश रंजन
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